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जैनहितैषी
प्रयोग
जिस जिस विधिसे देनेकी जरूरत होती है RasatanARATHI वह उस वक्त उसी विधिसे दी जाती है- लभाव या लालच इसमें न कोई विरोध होता है और न कुछ SEASUREMESERSEASER बाधा आती है, उसी प्रकार संसाररोग [ले०-बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय बी. ए. ] या कर्मरोगको दूर करनेके भी अनेक साधन आकांक्षा मनुष्यको स्वर्गमें अवश्य ले जा और उपाय होते हैं और जिनका अनेक प्रकारसे
सकती है, परंतु वहाँ रहनेके लिए मनुष्यको
अपने मनको सर्वथा स्वर्गीय पदार्थोंकी ओर
कर दव लगा देना चाहिए; कारण कि लालच मनुष्यको अपनी अपनी समयकी स्थितिके अनुसार जिस अपनी ओर खींचता है, पवित्रतासे अपवित्रताकी जिस उपायका जिस जिस रीतिसे प्रयोग ओर ले जाता है और आकांक्षासे वासनाकी करना उचित समझते हैं उसका उसी रीतिसे ओर मनको आकर्षित करता है । जब तक प्रयोग करते हैं। उनके इस प्रयोगमें किसी ज्ञानमें विशुद्धि और विचारोंमें पवित्रता नहीं प्रकारका विरोध या बाधा उपस्थित होनेकी हो जाती, आकांक्षाका स्थिर रहना कठिन संभावना नहीं हो सकती। इन्हीं सब बातों हैं । आकांक्षाकी प्रारम्भिक अवस्थामें लोभ
र प्रबल होता है और शत्रु समझा जाता है, पर मूलाचारके विद्वान् आचार्य महोदयने,
' परन्तु स्मरण रहे इसी अपेक्षा यह शत्रु है अपने ऊपर उल्लेख किये हुए वाक्यों द्वारा,
' कि जिसको यह लुभाता है वह स्वयं अपना अच्छा प्रकाश डाला है और अनेक युक्ति- "
ई भार अनक युक्त शत्रु है। परंतु इससे मनुष्यकी निर्बलता और योमें जैनतीर्थंकरोंके शासन-भेदको भले प्रकार अपवित्रताका पता लगता है, इस अपेक्षा प्रदर्शित और सूचित किया है। इसे मनुष्यका मित्र और आत्मिक उन्नतिके
आशा है कि इस लेखको पढकर सर्व लिए आवश्यक समझना चाहिए । बुराईको साधारण जैनी भाई, तत्त्ववभत्सजी और दूर करने और भलाईको ग्रहण करनेके अन्य ऐतिहासिक विद्वान्, ऐतिहासिक क्षेत्रमें, ..
' उद्योगमें यह साथ रहता है । किसी बुराईको
सर्वथा दूर करनेके लिए यह आवश्यक है कुछ नया अनुभव प्राप्त करेंगे और साथ ही
ग और साथ हा कि वह बुराई साफ जाहिर हो जाय और इस बातकी खोज लगायँगे कि जैनतीर्थंकरोंके यह काम अर्थात् बुराईको जाहिर कर देना शासनमें और किन किन बातोंका परस्पर लुभाव या लालचका है। भेद रहा है।
___ लोभ उस वासनाको भड़काता है जिस को मनुष्यने अपने वशमें नहीं किया है और जब तक वह उसे वशमें नहीं कर लेगा
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