________________
३७४
HAIBAMBABAITIDINAMASum
जैनहितैषी
अन्य किसी व्यक्तिके प्रयत्नकी जरूरत नहीं रहती। आलोचन-प्रत्यालोचन किया है, परन्तु इस कर्मदूसरेकी कृपा प्रसन्नतासे अथवा अरुचि या उदा- वादका किसीने नाम तक भी नहीं लिया । सीनतासे आत्माके हिताहितमें किसी भी प्रकारका जैनधर्मका यह कर्मवाद सर्वथा भिन्न अपूर्व परिवर्तन नहीं हो सकता । जीव अपनी ही और नवीन है। जिस प्रकार जैन बौद्ध और कृतिद्वारा जिन कारणोंको संचित करता है उन्हीं- वैदिक धर्मके अन्यान्य तत्त्वोंका, एक के परिणामों-कार्योंका शुभाशुभ फल, कालान्त- दूसरेके साहित्यमें, प्रतिबिम्ब (छाया) दृष्टिगोचर रमें अनुभव करता है । जगतके नाना धर्मोसे जैन- होता है वैसा इस कर्मवादके विषयमें नहीं प्रतीत धर्म जो सविशेष भिन्न दिखाई देता है वह इसी होता। यद्यपि महान् सिद्धान्तके कारणसे है।
पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति,पापःपापेन। जैन-धर्मका तत्त्वज्ञान 'कर्मवाद ' के मूल
(बृहदारण्यक) सिद्धान्त पर रचा गया है । कर्मवादको जैन- कर्मणो यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। धर्मका मुद्रालेख मानना चाहिए। जिस प्रकार
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणोगतिः॥ श्रीकृष्णका मुख्य प्रबोध निष्काम कर्मयोग, बुद्ध
(भगवद्गीता ४,७।) देवका समानभाव, पतंजलिका राजयोग और यषा ययानि कमोणि प्राक् सृष्टयाप्रतिपेदिरे शंकराचार्यका ज्ञानयोगको प्रकट करनेके लिए तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाःपुनः पुनः॥ था, वैसे ही श्रमण भगवान् श्रीमहावीरके उपदेशका .
(महाभारत, शान्ति० २३१,४८)
शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम् । लक्ष्य-बिन्दु कर्मवादको प्रकाशित करनेका था।
कर्मजा गतयो नृणामुत्तमाधममध्यमाः ॥ महावीर देवने कर्मके कुटिल कार्योंका और
( मनुस्मृति, १२, ३।) कठोर नियमोंका जैसा उद्घाटन किया है वैसा
___ इत्यादि कर्मतत्त्व प्रतिपादक विचार वैदिक औरोंने नहीं। भगवान् महावीरका यह कर्मवाद साहित्यमें और अनुभवगम्य और बुद्धिग्राह्य होने पर भी स्वरूपमें
“कम्मस्स कोमाह कम्मदायादो कम्मअत्यन्त सक्ष्म आर गहन है। इसकी मीमांसा योनि कम्मबन्ध कम्मपरिसरणो. यं कम्म बहुत विकट और रहस्य विशेष गंभीर है। इस करिस्सामि कल्याणं वा पापकं वा तस्स विषयका सम्यगू-अवगाहन करनेके लिए शा- दायादो भविस्सामि।" स्त्रीय ज्ञान-सम्बन्धी योग्यताकी अपेक्षाके सिवा, (अंगुत्तरनिकाय तथा नेत्तिपकरण।) इस तत्त्वके खास अनुभवी ज्ञाताकी भी आवश्यकता 'कम्मना वत्तती लोको कम्मना वत्तती पजा रहती है। केवल पुस्तकके आधार पर मनुष्य कम्मनिबंधना सत्ता रथस्साणीव यायतो॥ इसके स्वरूपसे यथार्थ परिचित नहीं हो सकता,
(सुत्तनिपात, वासेठ सुत्त, ६१।) यही कारण है कि बहुतसे विद्वान् जैनधर्मके इस प्रकार कर्म-सत्ताको प्रदर्शित करनेवाले सामान्य और कुछ विशेष सिद्धान्तोंको जानते उद्गार बौद्ध-साहित्यमें अवश्य उपलब्ध होते हैं; हुए भी कर्मवादके विचारोंसे सर्वथा अपरिचित होते परन्तु जैन-धर्मके कार्मिक विचारोंके साथ इनका हैं । हमारे इस कथनकी सत्यताके प्रमाणमें, यह कोई साम्य नहीं। भगवान् महावीरके कार्मिक बात कही जा सकती है कि आजपर्यंत अनेक विचार श्रीकृष्ण और बुद्धदेवके विचारोंसे सर्वथा नैनेतर विद्वानोने,जैनधर्मके भिन्न भिन्न विचारोंका भिन्न स्वरूप रखते हैं। .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org