Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 69
________________ TAmmamILAAMITRAAMAIIMIRAIMAANADA प्रतिदान। IFTTTTTARAMETHINETR IES ३९१ इन तीन महीनोंमें दिवाकरके जीवनमें जितने मोहिनी शक्तिसे पराजित होकर उसके सम्मुख आश्चर्य भरे व्यापार हुए थे उनमें यह बात सबसे अपना बलिदान दिया । विजयी कर्मचन्दने बढ़कर आश्चर्यकी थी। प्रस्तावको सुनते ही दिवाकरको बता दिया कि किस जगह उसका उसका हृदय धकधक करने लगा। भय, विस्मय, रुपया गड़ा हुआ है। नीतिज्ञान और लोभका उल्लास बढ़ानेवाला सुमिष्ट [१०] स्वर-ये सब मिलकर एक साथ युवकके हृद- कर्मचन्दसे दश हजार रुपयोंका लेना पहले यमें युद्ध करने लगे। वह सोचने लगा-"छिः छिः तो दिवाकरको अच्छा नहीं मालम हुआ। पर क्या चोरीके धनसे भविष्यजीवनके सुखरूए जब उसने देखा कि लक्ष्मीका अनुग्रह उसके किलेकी भित्ति बनाना होगी ? नहीं नहीं, मैंने ऊपर अविश्रान्तभावसे बरस रहा है तब विवेतो चोरी की नहीं-मैं तो सिर्फ कर्ज ले रहा कके साथ उसका मन माना निबटारा हो ही हूँ। फिर मेरा हृदय ताण्डव नाच क्यों नाच गया। उत्तर पश्चिमके दो एक शहरोंमें घूमकर रहा है ? हृदयकी दुर्बलताको अब करीब न दिवाकरने लाहोरमें आकर व्यवसाय शुरू कर फटकने दूंगा । पर यदि मालूम होगया कि में दिया । उसमें एक सालमें कोई तीन हजार चोरीका धन आत्मसात् करने चला हूँ तो फिर रुपये मिले । पर फिर भी उसे शान्ति नहीं जेलखाना--ओ बाबा !" मिली । इसी लिए बहुत सोच विचार कर दिवाकरने कर्मचन्दसे कहा-"भाई, मुझे वह अपने देशको लौट आया। उसकी शोकातुम्हारा रुपया नहीं चाहिए। " तुरा माताके साथ उसके प्रथम साक्षात्ने इस ___ कर्मचन्द चुपचाप दिवाकरको देख रहा पापपरिपूर्ण पृथ्वीमें भी स्वर्गीय दृश्य दिखा था। उसने देखा कि दिवाकरकी भीतरी मंत्री- दिया । उसके घर लौट आनेकी खबर पाकर सभामें उसके पक्षकी आवाज भी है। उसने ग्रामके नरनारियोंके झण्डके झण्ड आकर उससे दिवाकरको तर्कद्वारा समझाना शुरू किया। प्रश्न पर प्रश्न करने लगे। उसके पुराने शत्रु भी उसने कहा-" यदि तुम महाजनका कर्ज लेते उसके अवस्थापरिवर्तनके विषयको लेकर तो यह कैसे जान सकते कि उसका वह रुपया उसकी अभ्यर्थना करने लगे। उन सब बातोंको पापार्जित नहीं है और कौन तुमसे कहता है कि लिखनेके लिए हमारे इस छोटेसे इतिहासमें कर्मचन्दका गुप्त धन चोरीसे प्राप्त किया स्थान नहीं है। एक सप्ताहके बाद दिवाकर गया है ? यदि तुम्हें यह सन्देह ही है तो तुम अपनी वृद्धा माताको लेकर लाहोर चला आया इसका प्रायश्चित्त दान द्वारा कर सकते हो। और उस समयको आज बीस वर्ष गुजर गये दश हजार रुपयोंसे रोजगार करके यदि लखपती वह तभीसे लाहोरमें ही रहता है। बन जाओ तो उसमेंसे बीस हजार या तीस अपने कारागारसे छूटनेके पाँच वर्ष बाद हजारका दान करके सारा पाप धो सकते हो।" दिवाकरने कर्मचन्दका पता लगाया था; पर दिवाकर जब घर नहीं जायगा तो उसको यह उस हतभग्यकी जेलमें ही मृत्यु होगई थी। रुपया ले लेनेमें आपत्ति भी क्या है ? [११] जगतमें जो नित्य होता है-वही हुआ । दिवाकर जिस समय लाहोरमें आकर बसा जीत शैतानकी ही हुई । दुर्बल नरने लोभकी था उस समय कोई भी बंगाली वहाँ नहीं रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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