Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 98
________________ ४२० Jain Education International जैनहितैषी - परोपदेश - कुशल | ( ले० - - सिंघई मोहनचन्द्र जैन ) ( १ ) था प्रभातका समय मनोहर, पवन सुरीली थी चलती । कंजकली अति ललित मुदित मन, रवि किरणोंसे थी खिलती ॥ जलदखण्ड आभा अनुपयुक्त, थे नभमण्डलमें छाये । विटपों पर थे विहगवृन्द, कलरव करते बहु मनभाये ॥ ( २ ) झरझर करती सुन्दर सरिता, तरल मन्दगति से बहती । लता - गुल्मयुत उसके तट पर, आँखें निश्चल हो रहती ॥ इसी मनोरम भूमिभाग पर, फिरती थी डोली डोली । प्रेम भरी गंभीर केकड़ी, निज सुतसे बोली बोली ॥ (३) सरल पंथगामकि सब ही, जगजन गुणगण-गाते हैं । सरल चाल है सब सुखदायक, नीतिवान् बतलाते हैं ॥ इससे अब तुम समझ सोचकर, चलो चाल सीधी प्यारे । मिले बड़ाई तुम्हें सब कहीं, शीतल हों मेरे तारे ॥ (8) माताके सुन वचन पुत्र, यों हँसकर बोला मृदुवानी । सादर है स्वीकार मिली जो सीख मुझे जननी स्यानी ॥ लेकिन एक विनय है मेरी, यही एक मेरा कहना । सिखा दीजिए सरल चाल, चलके मुझको सीधा चलना ॥ (५) सुन करके यह उत्तर सुतका, उसे न सूझा कोइ उपाय । अपनी टेढ़ी चाल छोड़ वह, चल न सकी डगभर भी हाय ! पर उपदेश - कुशल होते जो, स्वयं नहीं कुछ कर सकते । उनकी होती दशा यही है, लज्जित वे चुप रहते ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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