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जैनहितैषी -
परोपदेश - कुशल |
( ले० - - सिंघई मोहनचन्द्र जैन )
( १ )
था प्रभातका समय मनोहर, पवन सुरीली थी चलती । कंजकली अति ललित मुदित मन, रवि किरणोंसे थी खिलती ॥ जलदखण्ड आभा अनुपयुक्त, थे नभमण्डलमें छाये । विटपों पर थे विहगवृन्द, कलरव करते बहु मनभाये ॥
( २ )
झरझर करती सुन्दर सरिता, तरल मन्दगति से बहती । लता - गुल्मयुत उसके तट पर, आँखें निश्चल हो रहती ॥ इसी मनोरम भूमिभाग पर, फिरती थी डोली डोली । प्रेम भरी गंभीर केकड़ी, निज सुतसे बोली बोली ॥
(३)
सरल पंथगामकि सब ही, जगजन गुणगण-गाते हैं । सरल चाल है सब सुखदायक, नीतिवान् बतलाते हैं ॥ इससे अब तुम समझ सोचकर, चलो चाल सीधी प्यारे । मिले बड़ाई तुम्हें सब कहीं, शीतल हों मेरे तारे ॥ (8)
माताके सुन वचन पुत्र, यों हँसकर बोला मृदुवानी । सादर है स्वीकार मिली जो सीख मुझे जननी स्यानी ॥ लेकिन एक विनय है मेरी, यही एक मेरा कहना । सिखा दीजिए सरल चाल, चलके मुझको सीधा चलना ॥
(५)
सुन करके यह उत्तर सुतका, उसे न सूझा कोइ उपाय । अपनी टेढ़ी चाल छोड़ वह, चल न सकी डगभर भी हाय ! पर उपदेश - कुशल होते जो, स्वयं नहीं कुछ कर सकते । उनकी होती दशा यही है, लज्जित वे चुप रहते ॥
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