Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 74
________________ HTAMILAIMIMILAIMIMIL जैनहितैषी किया है । मेरे पितामह अहिंसाके अटल लोग अन्य हिन्दुओंकी अपेक्षा अधिक आचारविश्वासी थे । यहाँ तक कि चाहे उन्हें एक हीन हैं अथवा उस प्रकारकी अहिंसा ही आचारसर्प काट क्यों न लेता पर वे उसे कभी न हीनताकी ओर ले जाती है। ऐसा कच्चा विचार मारते ! वे कभी एक कीटाणु तकको भी हानि हमसे दूर ही रहे । जनजाति, स्वयं अपनी नहीं पहुंचाते थे। वे अपना बहुतसा समय पूजा- रीति नीतिके अनुसार एक महती जाति है जो र्चनादिमें ही व्यतीत करते थे। वे पर्णरूपसे दानी, सत्कारी और अपने व्यवसायमें परिएक धर्मात्मा पुरुष थे, समाजमें उनका उच्च- श्रमा एवं चतुर है। स्थान और मान था। उनके एक भाई विरक्त इसी प्रकार हिन्दुओंकी अन्य जातियाँ भी तथा उक्त मतके एक प्रसिद्ध आचार्य थे। साधु हैं । हमारे कहनेका तात्पर्य केवल इतना ही है कि महात्माओंमें जिनसे कभी मझे अपने जीवन- अहिंसाके सीमाहीन आचारने उन जातियों को में मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे एक किसी प्रकारसे श्रेष्ठ और अन्य जातियोंकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट सज्जन थे। उन्होंने अपना जीवन नैतिकरूपसे भी उच्च नहीं बनाया है। वास्तअपने उद्देश्यानुसार, आवेशों, इच्छाओं तथा वमें ये वे मनुष्य हैं जो विशेषरूपसे अत्याचार मांस-भक्षण आदिसे अतीव घणा करते हुए तथा अन्य सबलताओंसे दुःख उठाते हैं। क्योंकि व्यतीत कर दिया । तब भी सदाचरणकी दृष्टि- वे अन्य लोगोंकी अपेक्षा अधिक असहाय हैं। से उनका जीवन रूखा और अप्राकृतिक ही इसका कारण केवल परम्परागत भय तथा सबरहा । मैं उनसे प्रेम और उनका सम्मान करता लताके प्रति घृणा ही है । ये अपने तथा अपने था, पर उनकी रीति नीतिका अनुसरण कर न निकटस्थ प्रिय स्नेहियोंके सम्मानकी रक्षा सका और न उन्होंने ही कभी मेरे इस कार्यकी नहीं कर सकते हैं । यूरोप ईश्वरदत्त सबलताके चिन्ता की। उनके भ्राता अर्थात् मेरे पितामह स्वत्वोंका नवीन अवतार है, तब भी यह यूरोएक दूसरे हो प्रकारके मनुष्य थे। वे उस सवि- पके लिए उचित था कि एक टालस्टायको वह कार अहिंसामें (अहिंसाके भ्रष्ट हुए सिद्धान्तमें) जन्म देता । पर भारतकी दशा दूसरी है। विश्वास करते थे; जो प्रत्येक दशामें किसी भारतमें हम अन्याय और सबलताको अत्याप्राणीकी हिंसा करनेसे रोकती है, तथापि वे अपने चार, वंचकता और उपद्रवके लिए कभी समव्यापार तथा व्यवसायमें सब तरहको चालाकियाँ र्थित नहीं करते । हमें विश्वास है कि भारत चलानेको केवल उचित ही नहीं वरद योग्य कभी यहाँतक नहीं पहुँच सकता । किन्तु हम भी समझते थे। उनके व्यवसायके नीतिशास्त्रके यह शिक्षा दिये जानेके पक्षमें कभी अनुमति अनुसार ऐसी चालाकियोंको चलानेकी छूट थी। नहीं दे सकते कि आत्म-रक्षा, सम्मान-रक्षा तथा — मैंने ऐसे विचारके बहुत मनुष्योंको भी देखा स्त्री, बहिन, पुत्री और माताकी रक्षाके लिए है जो नाबालिगों और विधवाओंको उनके न्याययुक्त .बलका प्रयोग न किया जाय । ऐसी अन्तिम ग्राससे भी वंचित कर देते हैं, पर वे शिक्षा अप्राकृतिक एवं अनर्थकारी है । हम ही जूं , पक्षी अथवा अन्य प्राणियोंको मृत्युकी राजनैतिक हत्याओंसे घृणा करते हैं, सिर्फ विपत्तिसे बचानेके लिए सहस्रों रुपये खर्च कर इतना ही नहीं, वरन् इससे भी अधिक, यहाँतक देते हैं । मेरे कहनेका यह तात्पर्य नहीं कि जैन कि हम अन्याययुक्त एवं अनुचिंत बलप्रयोग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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