Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 73
________________ ROMANILAIMERIALAMMAR अहिंसा परमो धर्मः। ३९५ अहिंसाके प्रति उत्पन्न अनुपयुक्त महत्त्व था, लकी चिन्तनाके लिए शक्तिशाली नहीं रहने जिससे कि हिन्दुओंमें सामाजिक, राजनैतिक देती। और नैतिक पतनकी सम्भावना उपस्थित हो यह मनुष्यको व्याधिग्रस्त एवं भीरु बना गई। वे यह भूल गये कि मनुष्यत्व भी अहिं- देती है। जैनधर्मके स्थापक, साधुपुरुष थे तथा साके समान ही एक धर्माचरण है । वास्तवमें उन्होंने आत्मत्याग एवं आत्म-संयमकी नीतिसे मनुष्यत्व अहिंसासे किसी रूपमें समताहीन न जीवनको बाँध दिया था। उनके अनुयायी जैनथा किन्तु उस समय तक, जब तक अहिंसाका साधु उन साधुपुरुषोंमेंसे हैं, जिन्होंने मानसिक उचित उपयोग किया जाता । उन्होंने एक- एवं हार्दिक सभी इच्छाओंके दमन करनेमें मात्र सत्य-जिस पर जातीय-स्वार्थ अवलंबित हिंसाकी उत्तेजना पर बहुत बड़ी सफलता प्राप्त है अर्थात् सबलोंसे निर्बलोंकी रक्षा, बलात्कार- कर रखी है। टाल्स्टायके मतकी अहिंसोका से किसीकी वस्तु छीननेवालों और परवस्तु रूप अभी कुछ ही वर्षाका फल है । जैन हड़प करनेवालों, चोरों और दुष्प्रवृत्तिवालों, अहिंसा, भारतवर्ष में तीन सहस्र वाँसे मानी विलासप्रिय दुर्जनों एवं स्त्रियोंकी सच्चरित्रताका जाती है । पृथ्वीतल पर अन्य कोई भी गुप्त रीतिसे नाश करनेवालों, दुष्टों और वंचकोंको ऐसा देश नहीं, जहाँ आहेसाके इतने अधिक अन्याय और दुःख देनेसे रोकना आदि- और ऐसे पक्के अनुयायी हों, जितने और जैसे की उपेक्षा की। उन्होंने यह माननेकी अवहे- भारतवर्ष में हो चुके और अब तक वर्तमान हैं। लना की, कि मनुष्यत्वकी रक्षाके लिए तब भी संसार भरमें इस देशके समान कोई न्याययुक्त क्रोध और प्रतिदंडका भय आव- ऐसा पददलित और मानुषिक गुणोंसे वंचित श्यक है जिससे निर्दोषोंको हानि पहुँचाने, देश नहीं. जैसा कि भारतवर्ष आज दिन हो पवित्रताको नष्ट करने और दूसरोंके स्वत्वों- रहा है अथवा गत पन्द्रह शताब्दियोंसे है । को छीननेवाले दुष्प्रवृत्तिके मनुष्योंके चित्त- कुछ लोग कह सकते हैं कि यह सब अधःपतन को रोकनेमें मनुष्य समर्थ हो । वे सत्यकी अहिंसाकी सदोष उपयोगिताले नहीं, वरन् उत्कृष्टता समझनेमें सफल नहीं हुए। क्योंकि अन्य धर्माचरणोंकी हीनतासे हुआ है। जो किसी अत्याचार, अन्याय या दुष्कर्मको अधिक न कह कर हम इतना ही कहेंगे कि होने देता है और इस तरह उसकी अधीनता कमसे कम इस अहिंसाके सिद्धान्तका भ्रष्ट हुआ स्वीकार कर लेता है वह एक प्रकारसे उसकी स्वरूप भी (और अनेक कारणोंके साथ) भारतके पुष्टि कर उसके करनमें उत्तेजना देता है तथा स्वमान, पौरुष और धर्माचरणको हानि पहुँवह अंशतः दुष्कर्म करनेवालेकी वृद्धि और चानेवाले कारणोंमेंसे एक था। वे पुरुष जो इस बलवृद्धिका भी उत्तरदाता होता हैं। सिद्धान्त पर पूर्ण विश्वास करने का दावा करते __'अहिंसा' की अत्युपयोगिता एवं दुरुपयोगिता हैं स्वयं अपने आचरणोंसे प्रमाणित करते एक प्रकारकी छूत है, जो क्रमको ढीला कर हैं कि यह विकारयुक्त सत्यताका उपयोग देती है. सगणताको निर्बल बना देती है. स्त्री वास्तवमें जीवनको छल मनुष्यत्वहीनता पुरुषोंको अर्धविक्षिप्त, शक्तिहीन और शिथिल तथा अत्याचारकी ओर ले जाता है। बना देती है; और उन्हें सदाचरण तथा शुभफ- मैंने स्वयं एक जैन-परिवार में जन्म ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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