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विविध प्रसङ्ग
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वोंको रखकर दिनपर दिन दुर्बल और क्षीण होने- कुँआरी हैं। कई लड़के ऐसे हैं जिनका एक एक वाला जैनसमाज जीता नहीं रह सकता । यह विवाह हो चुका है, पर स्त्रियाँ गुजर चुकी हैं । समय प्रत्येक जातिके मुखियाओंके चेतनेका है। लड़कियाँ कुँआरी हैं लेकिन उनकी साँके उन्हें चाहिए कि वे इस प्रश्न पर ख़ब गंभीरतासे नहीं चुकती हैं । हम लोगोंकी बिरादरी विचार करें और भविष्यमें वे क्या करेंगे इसका बहुत कम हो गई है। बिनैकावार ( दस्सा ) निश्चय अभीसे कर रक्खें । समझदार वह है जो बहुत बढ़ गये हैं । यहाँ कोई ऐसे आदमी नहीं अपनी आवश्यकताओंको समझकर उनके लिए हैं, जो कुंआरे लड़के लड़कियोंकी-जहाँ जहाँ पहलेहीसे तैयार हो रहता है। अन्यथा आवश्य- हमारी बिरादरी है वहाँ वहाँ खोज करके सगाई कतायें तो उनसे जो चाहती हैं वह करा ही करा देवें या कोई और तदबीर बतावें । कुँआरे लेती हैं। नये विचारोंका और नई आवश्यकता- लडकोंका किसी तरह विवाह हो जाय, काई
ओंका जो स्रोत खुला है उसके प्रबाहमें पड़े विचार किया जाय तो ठीक, जिससे वे बिगड़ने न बिना और बहे बिना कोई समाज और जाति पावें । कई लड़कोंकी शादियाँ दो दो तीन नहीं रह सकती। जो जातियाँ बुद्धिमती हैं वे तीन हो गई हैं और उनकी स्त्रियाँ गुजर गई उस प्रवाहके साथ बहनेके लिए पहलेहीसे तैयार हैं। इससे एक तो जातिमें लड़कियोंकी कमी हो हो रहती हैं और सबके साथ कुशलतापूर्वक गई है और जो हैं उनकी साँक नहीं सुलझती। अभीप्सित स्थलपर पहुँच जाती हैं; पर जो ऐसा यदि किसी तरह साँके सुलझ गई तो वर्ग प्रीति नहीं करती हैं, उन्हें प्रवाहकी प्रबल टक्करोंसे नहीं मिलती है । यदि इस विषयमें हम छिन्न भिन्न होकर जीर्णशीर्ण होकर बड़ी कठि- लोगोंसे कहते हैं तो उत्तर मिलता है कि जहां नाईसे वहाँतक पहुंचना पड़ता है अथवा बीचमें
साँक मिले वहाँ मिलाओ और देश देश भटको । ही नष्टभ्रष्ट हो जाना पड़ता है।
इत्यादि।" यह चिही हम उक्त सज्जनकी इच्छाके ३ एक जैन जातिका विवाह- विरुद्ध प्रकाशित करते हैं, पर जिस कारण सम्बन्धी कष्ट ।
उन्होंने हमें एसा करनेसे रोका है, वह उनका हमारे पाठक 'समैया । नामकी जैनजातिसे नाम प्रकाशित होना है, और उसे हम प्रकापरिचित होंगे । परवार जातिका यह एक शित नहीं करते । समैया भाइयोंकी दुर्दशाका भेद है । धर्मभेदके कारण इनमें जातिभेद हो ज्ञान हमें बहुत समयसे है। इनकी संख्या बहुत गया है। ये तारनस्वामीके अनयायी हैं और थोड़ी रह गई है और इस कारण इनकी सामामर्तिपूजाको नहीं मानते हैं, केवल जैनशास्त्रोंकी जिक अवस्था बहुत शोचनीय है। ये चाहते हैं पूजा करते हैं। पहले परवारोंके साथ इनका कि हम अपने परवार भाइयोंसे मिल जायँ और विवाहसम्बन्ध होता था । अब भी कहीं कहीं इसके लिए कोई कोई तो अपना सम्प्रदाय छोड़ होता है।
दनेके लिए भी राजी हैं । परन्तु अपनेको परम हमारे पास इस जातिके एक सज्जनकी चिठी श्रेष्ठ समझनेवाले परवार भाई इस ओर जरा आई है जिसकी ओर हम अपने समाजका ध्या- भा ध्यान नहीं देते। जैनसमाजकी संख्या-हासके न आकर्षित करते हैं । वे लिखते हैं-“ हमारी प्रश्नपर विचार करते हुए समाजके कई सज्जनोंबिरादरीमें कुंआरे लड़के बहुत हैं। लड़कियाँ भी ने लिखा था कि "जैनेतरोंको जैन बनानेसे जैन
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