Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 88
________________ ४१० mTANAMAHARAILED जैनहितैषी समाजकी वृद्धि होगी न कि अन्तर्जातियोंके- नेके लिए तैयार हों, तो आदरपूर्वक उन्हें अपने पारस्परिक विवाह प्रचलित करनेसे या पुनर्विवा- सम्प्रदायमें मिला लिया जाय । उन्हें ही क्यों हसे ।" पर हम देखते हैं कि दूसरे लोगोंको तारनपन्थकी माननेवाली जो असाठी आदि जैन बनाना तो बड़ी बात है, किसीसे यह भी और कई जातियाँ हैं उन्हें भी इसी तरह उपतो नहीं बनता है कि अपने इन थोड़ेसे समैया देशादि देकर अपने सम्प्रदायमें मिला लेना भाइयोंको ही अपनेमें मिला लिया जाय । किसी- चाहिए । एक दो अच्छे विद्वान् उपदेशक यदि को अपने धर्ममें मिलाना क्या कोई दिल्लगी वर्ष दो वर्ष ही इस विषयमें प्रयत्न करें तो है ? इसके लिए बड़ा औदार्य चाहिए। जिनमें अच्छी सफलता होगी। यदि समैया भाई अपने इतनी भी उदारता नहीं है कि अपने जाति ' विश्वासको बदलनेके लिए तैयार न हों, भाइयोंको ही अपने में मिला लें, चौके चूल्हे और . क चूल्ह आर वे अपने ही पन्थमें आरूट रहनेमें सखरे-निखरेके झगड़ोंसे ही जो नहीं सुलझ पाते हों, तो भी उनके साथ सामाजिक सम्बन्ध प्रसन्न हैं वे बेचारे दूसरोंको क्या जैन बनायँगे?हमारी सम- जोडनमें कोई हानि नहीं है । जब वैष्णव झमें परवार जातिकी प्रत्येक पंचायतीमें इस विष अग्रवालों और जैन अग्रवालोंमें परस्पर सम्बन्ध हो यकी चर्चा होनी चाहिए और समैया भाइयोंके साथ सकता है-जैन और वैष्णव जैसे विरुद्ध धर्म भी एक बेटीव्यवहार जारी करनेके लिए कोशिश करना " घरमें अच्छी तरह रह सकते हैं, तब कोई कारण चाहिए । हम इस बातको अच्छा नहीं समझते हैं कि किसी सामाजिक सुभीतेके लिए कोई - नहीं कि तारनपंथी और दिगम्बर जैनी आपसमें अपने धर्मको या विश्वासको बदल दे और इसके । विवाहसम्बन्ध न कर सकें । तारनपंथ दिगम्बर लिए किसीको लाचार करनेका भी हमारी सम सम्प्रदायका ही एक भेद है जो मूर्तिपूजाको झमें किसीको कोई अधिकार नहीं है; तो भी नहीं मानता है और दिगम्बर सप्रदायकी प्रायः हम देखते हैं कि तारनपंथ एक ऐसा पन्थ है सभी बातोंको मानता है-यहाँतक कि दिगम्बर कि जिसमें जीवनी शक्तिका प्रायः अभाव है। सम्प्रदायके पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि उसका समझनेमें आने योग्य कोई स्वतंत्र साहित्य ग्रन्थोंका स्वाध्यायादि भी करता है । कही नहीं है और इस कारण उसका जीवित रहना कहीं समैया भाइयोंका परवारोंके साथ भोजनअसंभव है। उसके माननेवाले और श्रद्धा रख- पानका भी सम्बन्ध है और कभी कभी तो अपनेवाले तभीतक रह सकते हैं जब तक उनमें वादरूपसे एक दो विवाहसम्बन्ध भी हो जाते शिक्षाका प्रचार नहीं हुआ है । ज्यों ही वे हैं । ऐसी दशामें उनके इस निकट सम्बन्धको शिक्षित होंगे त्यों ही किसी दूसरे मार्गको और भी अधिक निकट बनाना सर्वथा उचित हे पकड़ लेंगे। ऐसी अवस्थामें यह अच्छा है कि और प्रयत्न करनेसे इसमें सफलता भी हो वे मूर्तिपूजक बना लिये जाये जिससे उनमें सकती है। यदि इस विषयकी ओर दुर्लस्थ किसी तरह जैनत्व तो बना रहे। परन्तु फिर किया जायगा, तो इसका परिणाम अच्छा न भी हम यह कहेंगे कि वे इसके लिए लाचार न होगा । जैनसमाजकी घटती हुई संख्या और किये जायँ । उन्हें समझाया जाय, उपदेश भी तेजीसे घटेगी। दिया जाय और यदि वे अपना विश्वास बदल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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