Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 86
________________ ४०८ जैनहितैषीCamRRIERYDEUTINENattulitiDN ESETTE अन्य पदार्थों के समान धर्म भी सदा एकसा समान ऊपरा-ऊपरी न होना चाहिए जिन्होंने नहीं रहता। उसमें भी समयके अनुसार परिवर्तन कि एकबार जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा करार हुआ करते हैं और कभी कभी वे परिवर्तन इस दिया था । जैनधर्मका गहरा अध्ययन बतलायगा सीमातक पहुँच जाते हैं कि उन्हें देखकर मूल कि इस धर्मकी शिक्षामें वे सब शिक्षायें मौजूद धर्मकी कल्पना भी नहीं की जासकती । बौद्ध हैं जिनकी एक राष्ट्रके संगठनमें आवश्यकता धर्मके तांत्रिक साहित्यको देखकर उसकी होती है । लालाजीने भी यदि ऐसा किया होता अश्लीलतापूर्ण क्रियायें पढ़कर-क्या कोई कल्पना तो उन्हें जैनधर्मके छोड़नेकी आवश्यकता न कर सकता है कि इसका मूल वही उन्नत धर्म है पड़ती; पर जैनसमाजमें रहकर वे आर्यसमाजके जिसका प्रचार महात्मा बुद्धने किया था ? समान स्वतंत्रतापूर्वक देशका कल्याण कर सकते हमारा विश्वास है कि भगवान् महावीरका या नहीं, इसमें हमें सन्देह है। क्योंकि वर्तमान उपदेश किया हुआ जैनधर्म भी समय और जैनसमाजका विचारवातावरण आर्यसमाजकी देशकी परिस्थितियोंकी चोटें खाकर बहुत कुछ अपेक्षा बहुत संकुचित है-उसमें उदारताकी परिवर्तित हुआ है। उसका असली महत्त्वका बहुत कमी है। रूप दूसरे विकृत आडम्बरोंके भीतर छुप गया है। उसके साहित्यकी भी यही दशा हुई है। २दो जातियों में विवाहसम्बन्ध । उसकी रचना जब उन्नत मस्तिष्कवाले आचायौँके हाथोंसे छूटकर अनधिकारियोंके हाथोंमें ... अहमदाबादके श्रीयुत सेठ चिमनभाई नगीनआपड़ी, तब उन्होंने अपनी योग्यताके अनुसार । दासकी कन्याका विवाह-जो कि दशा श्रीमाली हैं-सेठ मनसुखभाई भगूभाईके भानजे भचूभाईके उसे धीरे धीरे वह रूप दे डाला जिसका प्रभाव वर्तमान जैनसमाजमें दिखलाई देता है । हमारा . __ साथ-जो कि ओसवाल हैं-महाबलेश्वरमें नई पद्धतिके साथ अभी थोड़े ही समय पहले हुआ है । पिछला साहित्य ऐसा दुर्बल और असार है कि दोनों ही कुटुम्ब धनी मानी और अपनी अपनी उसका अध्ययन करके कोई जाति जीवनी शक्ति . प्राप्त नहीं कर सकती है और दुर्भाग्यकी बात यह - जातिके मुखिया हैं और दोनों ही जैनधर्मके अनुहै कि इस समय इसी पिछले साहित्यका ही अधिक ९ यायी हैं । इसी प्रकारका एक विवाह गतवर्ष भी प्रचार है । इस विषयमें बहुत कुछ लिखनेकी र हुआ था और वह भी दो प्रतिष्ठित कटुम्बकि बीच हुआ था। उसमें राजकोटके एक भखिया इच्छा है; परन्तु समय तथा स्थानके अभावसे यहाँ लड़कीके पिता थे और बड़ोदाके दूसरे इतना ही कह कर सन्तोष करना पड़ता है. कि मूल जैनधर्म या उसकी आहिंसा दुर्बलता . ___महाशय वरके पिता । ये दो उदाहरण ऐसे हैं और कायरता और सिखलानेवाली नहीं है; . जिससे मालूम पड़ता है कि अब जैनसमाजमें उससे उच्चश्रेणीका जीवन व्यतीत करनेकी शिक्षा . भी समाजसुधारके विचारोंने प्रवेश किया है और उनकी पहुँच समाजके धनी मुखियाओं मिलती है। तक होने लगी है। वे भी अब समझने लगे हैं जैनधर्मका स्वरूप समझनेके लिए जैनधर्मके कि हमारे यहाँ जो सैकड़ों जातियाँ और उपप्राचीन साहित्यके अध्ययन करने की आवश्यकता जातियाँ हैं उन सबको बनाये रखना अपना सर्वहै और वह अध्ययन भी उन पाश्चात्य लोगोंके नाश कर लेनेके बराबर है । इन सैकड़ों भेदभा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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