Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 94
________________ - ४१६ जैनहितैषी - । था या श्वेताम्बरोंमें | हम जैनसमाजके विद्वानका ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि वे इस उलझन को सुलझानेका प्रयत्न करें । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कल्पसूत्रमें - जो वीर निर्वाण संवत् ९८० में लिपिबद्ध हुआ है - पर्युषण पर्वका विस्तार से उल्लेख है, इसलिए यह मानना पड़ेगा कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पर्युषण पर्व • नया नहीं हैं। अब रहे दिगम्बरसम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्र, सो उनमें खोज करने की आवश्यकता है एक बात और है । दिगम्बरसम्प्रदाय में यह दशलक्षणका पर्व माना जाता है - बुन्देलखण्ड आदि प्रान्तमें इसे कहते भी ' दशलक्षणपर्व, ही हैं - वहाँ पज़ूसन शब्दको कोई जानता भी नहीं है - और दशलक्षण पर्व सालमें तीन बार होता है । अर्थात् भादोंको छोड़कर यह माघ और चैतमें भी होता है; परन्तु माघ और चैत दोनोंहीके दशलक्षण ठाट-वाट और उत्सवसे नहीं होते हैं । इससे यह संभव जान पड़ता है कि श्वेताम्बरोंके पर्युषणके उत्सव - का अनुकरण करनेके लिए उनके पड़ौसी दिगम्बरोंने अपने दशलक्षणपर्वको यह विशाल रूप दे दिया हो। इस बात की पुष्टि इस बात से और भी विशेष होती है कि दक्षिण कर्नाटक में जहाँ श्वेताम्बर - सम्प्रदायका पड़ोस नहीं है, दशलक्षण पर्व इतने ठाटवाटसे नहीं मनाया जाता है । स्मरण रखना चाहिए कि यह एक ऐतिहासिक प्रश्न है । इससे किसी सम्प्रदाय के महत्त्व या अमहत्त्वका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए ..इस पर बिलकुल तटस्थ होकर और साम्प्रदायिक मोह छोड़कर विचार करनेकी आवश्यकता है । १२ माणिकचन्द - जैनग्रन्थमाला । उक्त ग्रन्थसालामें अब तक पाँच ग्रन्थ निकल चुके हैं - १ सागारधर्मामृतसटीक, २ लघीय स्त्रयादिसंग्रह, ३ पार्श्वनाथचरित काव्य, ४ Jain Education International विक्रान्तकौरवीय नाटक और ५ मैथिलीकल्या ण नाटक । अभी तक हमने इस ग्रन्थमालाके लिए स्थायी ग्राहक बनानेका कोई प्रयत्न नहीं किया था । क्योंकि हमें थोड़ा बहुत काम करके दिखाने के पहले सहायता माँगना या अपील करना पसन्द नहीं । हमारी नीति यह है कि पहले काम करके दिखलाना चाहिए; काम देखकर यह असंभव है सहायता देनेवाले न मिलें । तदनुसार हम उक्त ५ ग्रन्थ प्रकाशित करके दिखला चुके कि यह काम बराबर चलता रहेगा और यदि सहायता मिलती रहेगी तो इसके द्वारा सैकड़ों अलभ्य ग्रन्थोंका उद्धार हो जायगा। अब हम चाहते हैं कि इसके कुछ स्थायी ग्राहक बन जायें, जिससे इसके फण्डमें घाटा न रहे और ग्रन्थोंका प्रचार भी खूब होता रहे । ये पाँच ग्रन्थ लग भग एक वर्षमें निकले हैं । ये सब लागत के मूल्य में बेचे जाते हैं, इस कारण इन सबका मूल्य लगभग दो रुपया हुआ है । प्रतिवर्ष लग भग इतनेही मूल्य के ग्रन्थ निकलेंगे । यदि सिर्फ १०० ही ग्राहक या सहायक हमको ऐसे मिल जायँ जो इसके प्रत्येक ग्रन्थकी पाँच पाँच प्रतियाँ ले लिया करें और इस काम में उन्हें सिर्फ दश दश रुपया वार्षिक ही देना पड़ेगा, तो ग्रन्थमाला का कल्याण हो जाय । उसकी ५०० प्रतियाँ तैयार होते ही उठ जायँ और शेष धीरे धीरे बिकती रहें । दश रुपया देना धर्मात्मा भाईयों के लिए कोई बड़ी बात नहीं । आशा है कि हमारी इस प्रार्थना पर पाठक ध्यान देगें और जो महाशय इस प्रकार ग्राहक होना पसन्द करते हों वे हमें सूचना देने की कृपा करेंगे । स्वर्गवासी सेठ माणिकचन्दजी के स्मरण के लिए जिनके कि जैनसमाज पर असंख्य उपकार हैं और शास्त्रोद्धा - रका पुण्य सम्पादन करने के लिए प्रत्येक धर्मप्रेमीको इस ओर अपना उदार हाथ बढ़ाना चाहिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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