Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 82
________________ ४०४ जैनहितैषीmimmifinitMITTED है प्रत्यक्ष आज यूरप पर, हुआ हमारा कोप। तनिक सोच तेरी प्रभुताका कहाँ होगया लोप॥ जर्मन और ब्रिटिश राजोंमें, निकल पड़ी तलवार । लाखों इस नरमेधयज्ञमें, हुए, हो रहे छार ॥ मैं कृपालु जब थी भारत पर, लाखों थे वरवीर। अब तक रहे प्रताप शिवाजी, पृथ्वीसे रणधीर ॥ बस इस जगपर मेरा ही है, एकछत्र अधिकार ।। खबरदार अब आगे बढ़ कर, नहीं बढ़ाना रार ।। ३ विद्या:-- ठहरो, ठहरो, दोनों मिलकर, व्यर्थ लड़ाई न ठानो। हटो, काम लो तनिक बुद्धिसे, बात हमारी मानो। लक्ष्मी ! तुम हो बड़ी चंचला, गंभीरता नहीं है। और, शक्ति! तुममें विचारनेकी योग्यता नहीं है। (१०) देखो लक्ष्मी ! एक दोष है, तुममें अतिशय भारी। तुमको चोर चुरा ले जाते, चलती एक न प्यारी॥ तुम रहती हो जहाँ वहाँ पर, दोष फैलते सारे। नित्य लड़ाई होती, होते बन्धु बन्धुसे न्यारे ॥ मैं हूँ अति गंभीर चोर भी नहीं चुराने पाता। जितना करो दान मेरा धन, दूना बढ़ता जाता ॥ तुम भी सुनो शक्ति ! सब जगको, मैं सभ्यता सिखाती। तू मनुष्यको नरक दिखाती, मैं सुरपुर ले जाती ॥ (१२) उदाहरणमें देती हो तुम, यूरप-रणको मान । पर इतना तो सोच वहाँ क्या, तेरी ही है शान ॥ व्योमयान, तोपें, जो करतीं, अगणित नर संहार। अद्भुत रणकौशल आदिक ये, किसके हैं व्यापार ॥ (१३) तेरा बड़ा गर्व लख मैंने, यह करतब फैलाया। यूरपके इस महायुद्धमें, नीचा तुझे दिखाया ॥ हम तुम तीनों बहन जहाँ है, वहाँ पुण्य सुरधाम । वहीं बुद्ध औ महावीर हैं, वहीं कृष्ण औ राम ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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