Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 60
________________ ३८२ Ammmmmmm जैनहितैषी नोंको चाहिए कि वे परस्पर एक दूसरेके ग्रंथों- उसकी उपपत्ति पूछता है । इस लिए हमें अपने का विचारपूर्वक परिशीलन करें और उनमें सैद्धान्तिक विचारोंको बुद्धिगम्य बनानेके जो कुछ विशेषता दृष्टिगोचर हो उसका पृथ- लिए उनका नवीन पद्धतिसे विचार और विवेक्करण करें। अब हमें अपने स्वाध्याय और चन करना चाहिए। इस पद्धतिका नाम तुलपठनपाठनकी पुरानी पद्धतिका परिवर्तन करना नात्मक-पद्धत्ति है । विद्वान लोक प्रत्येक धर्मके चाहिए। संसार अब धार्मिक और तात्त्विक सिद्धान्तोंकी, एक दूसरेके सिद्धान्तोंके साथ विचारोंको अन्य दृष्टि से देख रहा है । जगत- तुलना करते हैं और किसमें कितनी विशिष्टता में श्रद्धाका साम्राज्य बहुत कुछ नष्ट हो गया और सत्यता है यह ढूंढ़ निकालनेका प्रयत्न है और उसके स्थान पर बुद्धिका प्राबल्य बढ़ करते हैं । हम अपने जैनधर्मके सिद्धान्तोका रहा है । अब प्रत्येक विचारक किसी विचारकी विशिष्टत्व, उसके सहोदर वैदिक और बौद्ध, सत्यताको श्रद्धेयतया न मान कर बुद्धिपूर्वक बटिक धर्मके सिद्धान्तोंके साथ तुलना किये विना ६० हजार श्लोककों की है । छठी टीका ६० हजार गुरु वीरसेनने माटग्रामके आनतेन्द्रके बनवाये हुए श्लोकोंकी वीरसेन और जिनसेन स्वामीकृत है। इसे जिनमन्दिर में बैठकर विक्रम संवत् ९०५ के लगमग जयधवला कहते हैं । यह प्राकृत-संस्कृत-कर्नाटक बनाया है। भाषामिश्रित है। २कषायप्राभृत--पाँचवें ज्ञानप्रवाद नामक, ये सब ग्रन्थ और टीकायें अलभ्य नहीं, पर पूर्वके दश भाग हैं जिन्हें वस्तु कहते हैं। दशवें वस्तुके दुर्लभ्य अवश्य हैं। दिगम्बरसम्प्रदायके मूडबिद्रीतीसरे प्राभूतका नाम कषाय-प्राभृत है । इसके मूल नामक प्रसिद्ध तीर्थमें-जो मेंगलोर जिलेमें हैं-एक रचयिता गुणधर नामके आचार्य हैं। ये 'पूर्वांशवेदी' थे। सिद्धान्त-भण्डार है । उसमें धवल, जयधवल और इनका ठीक समय मालूम नहीं, अनुमानसे धरसेना- महाधवल नामके तीन सिद्धान्त ग्रन्थ हैं । संभवतः चार्यके कुछ बाद हुए हैं। मूल ग्रन्थ १८३ सूत्रगाथा संसार भरमें इनकी केवल यही एक एक प्रति ही और ५३ विवरणगाथाओंमें समाप्त हुआ है । इसकी अवशेष है और ऐसे लोगों के अधिकारमें हैं जो इस- . भी कई बड़ी बड़ी टीकायें हैं। का नामशेष कर डालनेके लिए उतारू है। इनमसे __ पहली चूर्णवृत्ति। यह यतिवृषभ नामक आचार्यको एक तो कर्मप्राभतकी वीरसनेस्वामकृित धवला बनाई हुई है और सूत्ररूप है । इसकी श्लोकसंख्या नामको टीका है और संभवतः उसमें वप्पदेवगुरु६ हजार है । यतिवृषभ आचार्य गुणधर मुनिसे कुछ की व्याख्याप्रज्ञप्ति भी शामिल है । दूसरा जयधवल ही पीछे हुए हैं। क्योंकि उन्होंने गणधर मुनिके शिष्य सिद्धान्त कषायप्राभूतके पहले स्कन्धकी चारों विभनागहस्ति और आर्थमक्षु मुनिसे इस विषयका अध्य- क्तियोंकी जयधवला नामकी टीका है जिसमें कषाययन किया था, इसका उल्लेख मिलता है। प्राभूतके गुणधरमुनिकृत मूल गाथसूत्र और विवरणदूसरी उच्चारणवृत्ति । इसकी श्लोकसंख्या १२ हजार सूत्र, यति वृषभकृत चूर्णिसूत्र, वप्पदेवगुरुकृत वार्तिक है । यह उच्चारणाचार्यकी बनाई हुई है और इसीलिए और वीरसेन-जयसेनकृत वीरसेनीया टीका, इतनी चीजें शामिल हैं। तीसरा महाधवल सिद्धान्त कषायइसे उच्चारणवृत्ति कहते हैं। प्राभतकी यतिवृषभादिकृत टीकाओंका संग्रह है। तीसरी वृत्ति शामकुण्ड आचार्यकी है जो लगमग कर्मप्रकृति और कषाय प्राभृतका उक्त विशाल साहित्य ६ हजार श्लोक है । चौथी तुम्बुलुर ग्रामनिवासी तुम्बु केवल मूडबिद्रीमें है जिसको प्रकाशित कर डालनेकी लराचार्यकी चडामणि व्याख्या है। उन्होंने कर्मप्राभृतकी बहत बड़ी आवश्यकता है। भी टीका लिखी है। दोनों टीका ओंकी श्लोकसंख्या८४३गोम्मटसार-कर्मसाहित्यका दूसरा प्रसिद्ध हजार है। पांचवी टीका वाप्पदेवगुरुकी प्राकृत भाषामें ग्रन्थ गोम्मटसार है । दिगम्बर सम्प्रदायमें इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106