Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ ATIOBIHARITHILIARLI जैनहितैषीamoniumummn immati मधुपुरके चारों ओर मूरसाहबकी कोयलेकी कई इसी लिए निष्कर्मा दिवाकर, उस निर्जन खाने थीं । वृद्ध मूर स्वयं कामको न देखते थे; कुटीमें रहकर सुन्दरी श्वेतांगिनीके प्रेममें उन्मत्त मधुपुरमें रहकर ही वे उनका इन्तजाम करते थे। होकर मधुर सितारके स्वरों में अपने मनकी बात मधुपुरके बंगलेके बरामदेमें बैठे हुए और बताता था-इसमें विचित्रता ही क्या थी ? धूम्रपान करते हुए दिवाकर बाबूने पहले पहले उसके मधुपुर पहुँचनेसे कोई डेढमास बाद युवती मिसेस मूरको जिस दिन देखा था उस एक दिन मूर साहबके बंगलेमें बहुत शोर दिन उसको वृद्ध मूरकी लड़की ही समझा था। मचा । बूढा मर शेक्सपियरके साईलकी तरह कुमारीके साथ प्रेम करना कुछ बुरा नहीं-इसी हाथ पाँव हिलाकर दुन्द मचा रहा था। पुलिलिए दिवाकर बाबू अपने चित्तको संयत न कर सका दारोगा अपनी नोटबुकमें न मालूम क्या सका था। विदेशमें रहकर विदेशिनीके पदत- लिख रहा था । पुलिसको देखकर अनेक लमें अपना प्रेमपूर्ण हृदय अर्पण करके दिवा- आदमी बाहर तमाशा देखनेके लिए जमा हो कर रातको निर्जन जगहमें बैठकर मर्मस्पर्शी गये थे। दिवाकर बावूके हृदयगगनका सुधांशु भी विहाग-रागिनी गाया करता था और अवसर सखे मँहसे स्थिर होकर एक कोनेमें खडा था। मिलते ही उस लावण्यमयीकी स्निग्ध रूप राशिको देखकर अपना चित्त प्रसन्न किया करता था। दिवाकरके मनमें आया कि साहबके यहाँ __ मूरकी युवती स्त्रीसे प्रेम करके दिवाकरने जाकर परिचय करनेका यह अच्छा अवसर है। अपनी मूर्खताका परिचय दिया था-यह कहनाप पर बिना बुलाये किसी कार्यमें हस्तक्षेप करना बिलकुल ठीक है । जिसको पानेकी कोई आशा विलायती नीतिके विरुद्ध है । यह सोचकर नहीं, जिस अग्निमें केवल जलानेकी शक्ति है, उसने इस तरह जाने का संकल्प त्याग दिया । जिसमें संजीवनी शक्ति नहीं है-उसके लिए परन्तु मामला क्या है-यह जानने के लिए दिवाआत्मसमर्पण करना, उस बह्निमें भस्मीभत हो करको बड़ी उत्सुकता हुई । उसने अपने नौकजाना-पागलपन नहीं है तो और क्या है ? रसे पूछा-मूर साहबके बंगले में यह कैसी गोल किन्तु हम जिसे प्यार करते हैं वह यदि अपनी माल है ! नील गम्भीर दोनों आँखोंसे हमको घूरा करे, नौकरने कहा-साहबके बहुतसे बहुमूल्य देखनेके सुयोगके समय ही जो आराम कुर्सी- जवाहरात और नकद रुपये चोरी हो गये हैं। पर बैठ कर पुस्तक पढ़े और बीचबीचमें हमारी दारोगा सा० तहकीकात करते हैं । ओर देखकर मृदु कटाक्षपात किया करे, हम कहनेकी जरूरत नहीं कि इस विपत्तिके जिस समय सितारपर संगीतालाप किया करें संवादसे प्रेमिक दिवाकरका हृदय दुःखसे भर वह यदि उस समय अपने छोटेसे बायें पैरसे गया । जिस समय उसने पत्थरकी मूर्तिकी तरह ताल दे-ऐसा होनेपर यदि हम उसके प्रेममें खडी हुई मिसेज मरका रक्तहीन चेहरा देखा उन्मत्त हो जाय तो भी क्या तुम हमें पागल उस समय दिवाकर बाबूके हृदयके भीतरी कह सकते हो ? दिवाकर जानता था कि अंग- भागसे एक बड़े निश्वासकी उत्पत्ति हुई । जिस रेज रमणीकी नसनसमें रोमान्स भरा रहता है। प्रेममें सहानुभूति नहीं है उसको प्रेम कहना भी * काल्पत कहानियाँ। व्यर्थ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106