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LALITHILOSONAL
जैनहितैषी
NEPALIANCDAANTUNNEYAAT
किया । हमारे साहित्य और विचारों पर सामा- PARTIANEVAALWAY जिक विषयोंका जो रंग चढा है वह केवल पड़ौसीधर्मोके कारण है । जिस प्रकार पाश्चात्य , संस्कृतिकी बाहरी चमक दमकमें भारत अपने अन्तस्तेजको भूल गया है; वैसे ही [ले.--श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा । ] जैनसमुदायने भी हिंदूंसमाजके रूढीधर्मोकी धामधूममें मोहित होकर अपने असली सिद्धा- लाहोरके मुट्ठीभरे बंगालियोंमें दिवाकर बाबूकी न्तोंको विस्मरण कर दिया है । इसी विस्मृतिके जैसी समालोचना होती है-उससे मालूम कारण हमारा समुदाय दिन प्रतिदिन घटता पड़ता है कि वहाँ पर उनकी प्रतिष्ठा साधारण घटता आज नाम मात्र रह गया है । इस लिए नहीं है । धनमें तो दिवाकर बाबू बंगालियोंमें अब हमारा कर्तव्य है कि भूले हुए सिद्धान्तोंको क्या अनेक पंजाबियोंमें भी बड़े हैं; पर उनकी फिर ताजा करें। हमें सामाजिक बन्धनोंके निकम्मे समालोचनामें यह प्रसंग कभी न उठता था। जालमें न फँस कर धार्मिक सत्योंके अगाध समु- उनकी जिन बातोंकी विशेषरूपसे समालोचना द्रमें स्वेच्छापूर्वक तैरते रहना चाहिए । इन धार्मिक सत्योंका यथार्थ स्वरूप हम तब ही
र होती थी उनमें उनका स्त्रीविद्वेष, अँगरेजद्वेष समझ सकेंगे जब हमें कर्मवादके विचारोंका ठीक और बाल्यजीवनके इतिहासको गुप्त रखनेकी चेष्टा ठीक ज्ञान होगा। कर्मवादको समझे बिना कोई ये प्रधान थीं । दिवाकर बाबूका सौजन्य सुप्रजैनधर्मका ज्ञाता नहीं कहला सकता । शमस्तु।
न सिद्ध था। दानमें भी उनका मुकाबला करनेवाले
बहुत कम लोग होंगे। पर अँगरेजोंके साथ व्यवसम्पादकीय नोट-कर्मसम्बन्धी सिद्धान्त हार करनेमें वे जैसी रुखाईका परिचय देते थे दिगम्बर और श्वेताबर दोनों ही सम्प्रदा- या किसी स्त्रीके नामोल्लेख पर जैसी विरक्ति योंके प्रायः एकसे हैं । इनमें बहुत ही प्रकाश करते थे उसको देखकर आदमी अनेक कम-नाम मात्रका-भेद है । ऐसी दशामें तरहकी बातें मनमें सोचा करते थे। यदि कोई क्या ही अच्छा हो यदि हमारे दिगम्बर- इन बातोंका कारण उनसे पूछता था तो उनका सम्प्रदायके विद्वान् श्वेताम्बर-कर्मसाहित्यको चेहरा बहत ही गम्भीर भाव धारण कर लेता और श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान् दिगम्बर था। लाहोर-प्रवासी उर्बर-मस्तिष्क बंगालियों में कर्मसाहित्यको भी पढ़ें और मनन करें।
! हरएकने एक एक थियरी (सिद्धान्त ) बना हमारी समझमें इससे दोनोंको लाभ होगा। दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें जो खूबियाँ हैं उनसे दोनों
" रक्खी थी और दिवाकर बाबूकी अनुपस्थितिमें ही लाभ उठायेंगे । कमसे कम उन सजनोंको वे अपनी थियराको दूसरक मस्तिष्कम प्रवेश करतो इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए जो नेकी खूब चेष्टा किया करते थे। इन सब थियविचारशील हैं और दोनों सम्प्रदायोंके हृदयको रायाम आशुताषका थियरी सबस आधक सक्षिप्त टटोलना चाहते हैं। जब तक दोनों सम्पदा- और युक्तिपूर्ण है । वह कहता है, दिवाकर बाबू योंके ग्रन्थोंका परस्पर अध्ययन अध्यापन न कुआरे नहीं हैं; मालूम होता है उनकी स्त्री किसी किया जायगा, तब तक न दोनोंकी कट्टरता कम अँगरेजके प्रेममें फँसकर उनको छोड़ गई है। होगी और न दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदायकी इसीलिए वे अँगरेज और स्त्री-जातिसे इतनी घिन भिन्नताका ऐतिहासिक रहस्य ही समझमें आयगा। करते हैं।
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