Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 53
________________ SHALIMILIATIALAMITRALIAMOHAARAAOTOBOARD जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । . ३७५ कितने एक आधुनिक विद्वानोंके ऐसे विचार कराल गालोंमें विलीन होते होते भी जो कुछ दृष्टिगोचर होते हैं कि “ जैनधर्म और बौद्ध- अत्यल्प भाग, जैनधर्मके इस कर्मवादविषयक धर्म कोई स्वतंत्र मत नहीं है, परन्तु वैदिकधर्मही- साहित्यका उपलब्ध है उसका ठीक ठीक अवके भेद विशेष हैं । ये दोनों धर्म वैदिक धर्महकि लोकन करनेसे हमारे इस कथनकी सत्यताका अपने पिताके समीपसे अपनी आवश्यकताके अनुभव हो सकता है । जो कुछ कार्मिक-साअनुसार विचार-संपत्तिका हिस्सा लेकर किसी हित्य इस समय विद्यमान है वह भी इतना विशाल कारणवश जुदा निकले हुए पुत्र समान हैं, है कि उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके अर्थात् ये धर्म परकीय--भिन्न जातीय न हो कर लिए मनुष्यको अपने आयुष्यका बहुत बड़ा इनके पूर्ववर्ती ब्राह्मणधर्महीकी पृथक्-भूत शाखायें भाग लगाना पड़ता है । ऐसी दशामें, जैनधर्मके हैं। "* इन विचारोंकी विशेष मीमांसा करनेका विचारों-सिद्धान्तोंका मूलस्थान वैदिक धर्म यह प्रसंग नहीं है। यहाँ हम केवल इतना ही कह है, यह कथन कैसे युक्ति-युक्त माना जा कर आगे बढ़ते हैं कि ये विचार जैनसिद्धान्तोंका सकता है ? सम्यग अभ्यास-विशेषावलोकन-किये बिना ही कछ वर्ष पहले तो लोग जैनधर्मसे, बहुत प्रदर्शित किये गये हैं,-अतएव इनमें सत्यकी मात्रा ही अनभिज्ञ थे; परन्तु पाश्चात्य पंडितोंके बहुत कम है । जनधर्मके स्याद्वाद, जीववाद, प्रशंसनीय प्रयाससे अब वह दशा नहीं रही। कर्मवाद, आर परमाणुवाद आदि अनेक प्रौढ अब बहतसे विद्वान् जनधर्मके स्वरूपको जानते विचार-तत्त्व हैं जिनका वैदिक-साहित्यमें कहीं पर हैं और जाननेका प्रयत्न करने लगे हैं। कई विद्वान् आभास भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि जैनधर्मके जैनधर्मविषयक साहित्य, इतिहास और तत्त्वसिद्धान्तोंका मूलस्थान वैदिकधर्म माना जाय, ज्ञानका आलोचन-प्रत्यालोचन करने लगे हैं। तो भगवन्महावीर प्रतिपादित जैनतत्त्वोंका मूल कितनी ही देश-विदेशस्थ प्राचीन साहित्य-प्रकास्वरूप वादकसाहित्यम अवश्य उपलब्ध हाना शक संस्थाओंकी ओरसे तथा स्वयं जैन-समाचाहिए; पर वहाँ उसका कोई चिह्न नहीं मिलता। जकी ओरसे भी, जैनधर्मके कितने ही प्राचीन जैनधर्मके उपर्युक्त अनेक वादोंको छोड़ कर केवल ग्रंथ प्रकाशित हो गये हैं और दिन प्रतिदिन अकेले कर्मवादहीको लेकर विचार किया जाय, विशेषतया होने लगे हैं। इससे यद्यपि अब जैनजो इस लेखका उद्दिष्ट विषय है, तो प्रतीत होगा धर्म और जनसाहित्यके ऊपर बहुत कुछ प्रकाश कि जो कर्मवादविषयक साहित्य जनसमाजमें पता जाता है और जैनेतर विदानोंकी प्रीति विद्यमान है और उसमें कर्मसंबंधी जिन हजारों भी जैनधर्मकी ओर बढ़ रही है तथापि महावीरविचारोंका संग्रह है उसके एक भी अंश या देवका मख्य सिद्धान्त जो कर्मवाद है उसकी विचारका साम्य कर सके ऐसा कोई उल्लेख वैदि- ओर अभीतक विद्वानोंका चित्त आकर्षित नहीं क साहित्यमें नजर नहीं आता । हजारों वर्षोंके हआ। कारण यह है कि एक तो यह विषय ही प्रचंड आघात-प्रत्याघातोंके कारण कलिकालके गहन और कठिन है, दूसरा इस विषयके साहित्य * देखो, लो० श्रीयुत बालगंगाधर तिलक रचित का विद्वानोंको परिचय भी बहुत थोडा है। कर्म'भगवद्गीता-रहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र' (पृष्ठ वादका निरूपण करनेवाला कितना साहित्य ५६६)-लेखक । विद्यमान है और किन किन ग्रंथों में इसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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