Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 55
________________ • जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य | । । क्षा नहीं के बराबर है, तथापि आजकल के मनुष्योंके लिए तो यह भी दुरवगाह्य हो रहा है जैन साहित्य मुख्य दो विभागों में विभक्त है श्वेताम्बर और दिगम्बर नामके दोनों संप्रदायों का साहित्य भिन्न भिन्न है । दोनों प्रकार के साहित्यमें कर्मविषयक साहित्यके बड़े प्रौढ और महान् ग्रंथ विद्यमान हैं । श्वेताम्बर संप्रदाय के बहुतसे महत्व के ग्रंथ तो छप कर प्रकट भी हो चुके हैं । यहाँपर हम श्वेताम्बरीय कर्म- साहित्यके प्रधान प्रधान ग्रन्थोंका संक्षेपमें उल्लेख करते हैं जिससे विद्वानोंको इस विषयका अवलोकन कर नेर्भे सुगमता होगी । यों तो भगवती, प्रज्ञापना, लोकप्रकाश आदि अनेक ग्रंथोंमें इस विषयका बहुत कुछ उल्लेख है। परंतु जिनमें केवल कर्मविषयक ही वर्णन किया गया हो वैसे मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं: १ - कम्मप्पयड़ी ( कर्मप्रकृति ) श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्य में कम्पप्पयडीका प्रथम नाम है | यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में गाथा ( आर्या ) नामक छन्दोंमें बना हुआ है । इसकी कुल गाथायें ४७५ हैं । इसके निर्माता श्री शिवशर्म नामके आचार्य हैं। ये आचार्य कब हुए, इसका निश्चायक प्रमाण अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुआ । केवल इतना जाना गया है कि ये आचार्य पूर्वधर या पूर्वीय ज्ञानको धारण करनेवाले थे । यह बात इनके बनाये हुए ग्रंथांसे जानी जाती है । इसी कम्मप्पयडीके अन्त में एक गाथा है जिसमें लिखा है कि* इय कम्मप्पयडीओ जहसुयं नीयमप्पमइणा वि । सोहियणाभोगक कहंतुवर दिडिवायन्नू ॥ ४७४ ॥ * इति कर्मप्रकृतितो यथाश्रुतं नीतमल्पमतिनाऽपि । शोधयित्वाऽनाभोगकृतं कथयन्तु वरदृष्टिवादज्ञाः ॥ Jain Education International ३७७ अर्थ - (ग्रंथकार शिवशर्मसूरि कहते हैं कि ) इस प्रकार यह विचार - अल्पमतिवाले ऐसे मैंने जैसा सुना था वैसा कर्मप्रकृतिसे लिया - बनाया है । दृष्टिवादके ज्ञाता ऐसे श्रेष्ठपुरुषोंको यदि, इसमें कही स्खलना दिखाई दे तो उसे शुद्ध कर, औरोंके प्रति कहें - पढ़ावें । इस गाथामेंसे तात्पर्य यह निकला कि यह ग्रंथ शिवशर्मसूरिने कर्म प्रकृति नामक किसी शास्त्रीय विभाग में से उद्धृत किया हैं । कम्मप्पयडीमेंसे उद्धृत किया जाने इस ग्रंथका नाम भी कम्मप्पयडी पड़ गया है । अच्छा तो अब यह कम्मप्पडी क्या चीज है सो देखें । व्याख्याकारोंने इस शब्दकी व्याख्या इस प्रकार की है— “ – दृष्टिवादे हि चतुर्दशपूर्वाणि । तत्र च द्वितीयेऽग्रायणीयाभिधानेऽनेक वस्तुसमन्विते पूर्वे पञ्चमं वस्तु विंशतिप्राभृतपरिमाणम् । तत्र कर्मप्रकृत्याख्यं चतुर्थं प्राभृतं चतुर्विंशत्यनुयोगद्वारमयम् । तस्मादिदं प्रकरणं नीतमाकृष्टमित्यर्थः । ” ( मलयगिरिसूरिः । ) I तात्पर्य यह है कि अग्रायणीनामके दूसरे पूर्वमें पाँच वस्तु ( पदार्थनिरूपण ) हैं, जिनमें पाँचवाँ वस्तु बीस प्राभृतों ( प्रकरणों - अध्यायों) बना हुआ है । इन प्राभृतों में कर्मप्रकृति नामका चौथा प्राभृत हैं जिसमें कर्मतत्त्वका निरूपण है । इसी कर्मप्राभृत ( कर्मप्रकृति ) में - से इस ग्रंथका भाव लिया गया है और उसे गाथाओं में गुंथन कर यह कर्म्मप्रकृति प्रकरण बनाया गया है । इस कथन से यह सिद्ध होता है कि शिवशर्म सूरि दूसरे पूर्वके ज्ञाता थे । पूर्वोके ज्ञानका सर्वथा अभाव महावीरदेवकी १० वीं शताब्दी के अन्तमें अर्थात् विक्रम की ६ ठी शताब्दी में हुआ था, ऐसा पुराने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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