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जैनहितैषी -
मुख्य विवेचन किया गया है, यह बात बहुत कम विद्वान् जानते हैं । इस लिए यहाँ पर हम उन ग्रंथों का संक्षिप्ततया उल्लेख करते हैं जिनमें केवल कर्मसम्बन्धी ही विचारोंका विवेचन किया गया है। इससे सर्वसाधारणको इस विषयकी विशालताका भी अनुभव होगा और जो कोई इसका अभ्यास करना चाहेंगे उन्हें तत्तद् ग्रंथोंकी प्राप्तिमें भी सुगमता होगी ।
जैनधर्म के प्राचीन ग्रंथोंमें लिखा है कि श्रमण भगवान् श्रीमहावीरदेवने भिन्न भिन्न स्थल और समय में कर्मतत्त्व के विषयमें जो उपदेश दिया था, उसे उनके गणधरोंने-गौतमादि प्रधान शिष्योंनेएकत्र संगृहीत किया था । इस संग्रहका नाम विषयानुसार 'कर्मप्रवाद' रक्खा था । ' कर्मप्रवाद' शब्दका तात्पर्य व्याख्याताओंने इस प्रकार लिखा है
“कर्म ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारं तत्प्रकर्षेण प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशादिभेदैः सप्रपञ्चं वदतीति कर्मप्रवादम् । ” ( नन्दीसूत्र, मलयगिरिसूरि । )
अथवा
" बन्धोदयोपशमनिर्जरा पर्याया अनुभवप्रदेशाधिकरणानि स्थितिश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टा यत्र निर्दिश्यते तत्कर्मप्रवादम् । ( तत्त्वार्थराजवा - र्तिक, भट्टाकलङ्कदेव ! )
अर्थात् जिसमें ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मों के स्वभाव और काल आदि भेदोंका सविस्तर वर्णन किया गया हो, या कर्मसम्बन्धी बंधन और उदयादिका स्वरूप तथा सत्ताका जिसमें विवेचन किया गया हो, उसे 'कर्मप्रवाद' कहते हैं । यह कर्मप्रवाद बहुत विशाल था । इसका अध्ययन साधारण बुद्धिवाले मनुष्योंके लिए अशक्य था । अतिशयप्रज्ञावान् मुनि ही इसमें प्रवेश पा सकता था । इस लिए इस संग्रह
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की गणना पूर्वो के ज्ञानमें की जाती थी । पूर्वीय ज्ञानको धारण करनेवाले मुनि श्रुतकेबली कहे जाते थे । अर्थात् इस कर्मप्रवादका जो पूर्ण ज्ञाता होता था वह ' सर्वज्ञतुल्य समझा जाता था । श्रमण भगवान् श्रीमहावीरदेवके अनेक श्रमण शिष्य इस 'कर्मप्रवाद' के पारदृष्टा थे । भगवान्के निर्वाणके बाद भी कई आचार्य इसका यथेष्ट ज्ञान रखते थे । परन्तु भारतकी मध्यकालीन राजकीय और सामाजिक परिस्थितियोंके विषमसंयोगों के कारण, भारतके अन्यान्य महान शास्त्रोंकी तरह यह 'कर्मप्रवाद' पूर्व भी, महावीरदेव के कुछ ही सौ वर्ष बाद, नष्ट हो गया। आज इसमें का कुछ भी प्रकरण या अंश विद्यमान नहीं है।
इस ' कर्मप्रवाद' के सिवा एक और दूसरे अग्रायणी नामके पूर्व में भी, जो विस्तारमें इससे छोटा था, कर्मतत्त्व विषयक विचारोंका विवेचन वाला 'कमप्रीभृत' नामका एक विभाग था । ' कर्मप्रवाद' के नष्ट हुए बाद इसी 'कर्मप्राभृत' के आधार पर कर्मसम्बन्धी मीमांसाका अध्ययन अध्यापन किया जाता था । इस प्राभृतके किसी किसी अंशको लेकर, उस समय के श्रमणाधिपने अल्पबुद्धि वाले जिज्ञासुओंके उपकारार्थ स्वतंत्र रूपसे कितने ही संक्षिप्त 'प्रकरण ग्रंथ' लिखे थे ! कालांतर में यह कर्मप्राभूतभी सारे पूर्वके साथ नष्ट हो गया; परंतु इसमेंसे उद्धृत किये गये प्रकरण-ग्रंथ संक्षिप्त और सरल होनेसे श्रमणसंवमें विद्यमान रह गये । वर्तमान कालमें जो कुछ कर्मतत्त्व विषयक साहित्य विद्यमान है वहीं प्रकरण-ग्रंथों का बना हुआ है। पिछले आचार्योंने संप्रदायप्राप्त शिक्षण और स्वानुभव ज्ञानके आधारसे, इन्हीं ग्रंथोंको व्याख्या विवरणादिसे अलंकृत कर इस साहित्यको यथाशक्ति पल्लवित किया है । यद्यपि विद्यमान साहित्य पूर्वकी अपे
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