Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 56
________________ जैनाहितैषीmmmmmmmmmmmmm ग्रंथोंमें लिखा है । * इस दृष्टि से इस ग्रंथके कर्ता देख कर अनुमान किया जाता है कि विक्रम विक्रमकी ६ ठी शताब्दीके पूर्व हुए होंगे ऐसा की ९ वीं शताब्दीमें यह बनाई होगी। सुप्रसिद्ध सिद्ध होता है । इस बातके सिवा और कोई व्याख्याकार श्रीमलयगिरि सूरिकी बनाई हुई प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख इनके विषयमें नहीं मिलता। टीका है जो इसके रहस्योंको अच्छी तरह उद्घाटन इस ग्रंथपर एक पुरानी चूर्णि बनी हुई है जिसकी करती है । इसकी श्लोकसंख्या ८००० प्रमाण श्लोकसंख्या कोई ७००० प्रमाण है । यह कुछ है। दूसरी टीका महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीकी प्राकृत और कुछ संस्कृतमें है । इसके कर्ताका की हुई है । यह बहुत बड़ी और महत्त्ववाली नाम और समयादि अज्ञात हैं। परंतु रचनाको है। यह चूर्णि और मलयगिरि-व्याख्याको सम न्वित करती है और ग्रंथके रहस्योंका मार्मिक* इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और हरिवंशपुराण तया निरूपण करती है । इसकी श्लोकसंख्या आदिके अनुसार महावीरनिर्वाणके ६८३ वर्षतक १३ हजारके लगभग है। इन व्याख्याओंके सिवा अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है । अन्तिम अंगज्ञानी लोहा । मुनिचंद्रसूरि ( १२ वीं शताब्दी ) का एक चाये हुए। उनके बाद विनयंधर, श्रदित्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार मुनि 'अंगपूर्वदेशधर' अर्थात् अंग संक्षिप्त टिप्पण भी मिलता है। पूर्वज्ञानके एक भागके ज्ञाता हए । एक जगह लिखा इस ग्रथम कर्मसम्बन्धी, बंधन. संक्रमण. है कि ये चारों ११८ वर्षमें हुए। यदि वह सच हो उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशमना, निधत्ति तो वीरनिर्वाणकी आठवीं शताब्दिके अन्ततक अर्ह. और निकाचित इन आठ करणोंका तथा उदय इत्त आचार्य रहे । उनके बाद अर्हद्वलि आचार्य हुए। और सत्ता तत्त्वोंका अपूर्व और सूक्ष्म रूपसे ये 'अंगपूर्वदेशैकदेशवित् ' अर्थात् उस एक भागके विवेचन किया गया है। भी एक अंशके जानकार हुए। इनके स्वर्गवासी होनेपर माघनन्दि आचार्य हुए। ये भी उतने ही ज्ञानके २-पंचसंग्रह। धारक थे । माघनन्दि जब स्वर्गगामी हो गये तब कमेविषयक-ग्रंथों में दूसरा नंबर पंचसंग्रहका गिरिनारके निकट धरसेन नामके आचार्य हुए। इन्हें है। इसके रचयिता श्रीचंद्रर्षि महत्तर हैं । ये कब अप्रायणी पूर्वके पांचवें वस्तुके चौथे कर्मप्राभृतका हुए, इसका विशेष निर्णय अभी तक नहीं किया ज्ञान था। उन्होंने भूतबालि और पुष्पदन्त नामके गया । तथापि इनके नामके साथ जो ‘महत्तर मुनियोंको पढ़ाया और तब उन्होंने कर्मप्रकृति प्राभृ- का विशेषण लगा हुआ है उससे वि० की ७ वीं तकी रचना की। इनके बाद गुणधर आचार्य हुए शताब्दीके आसपास होनेका अनुमान किया जिन्हें पांचवें ज्ञानप्रवादपूर्वके दशवं वस्तुके तीसरे कषाय- जाय तो असंभव नहीं होगा। चर्णिकार श्रीजिप्राभतका ज्ञान था । यद्यपि श्रुतावतारमें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं लिखा है कि इनके बाद और कब तक पूर्वका - नदास महत्तर और गोवालिय महत्तर आदि ज्ञान रहा, तो भी ऐसा मालूम होता है कि गुणधर आचार्याका इसी समयके लगभग होनेका प्रमाण, आचार्यके बाद ही इसका लोप हो गया होगा। यदि मिलता है, इस लिए पंचसंग्रहकार भी इसी समअर्हद्दत्तके वाद इन सब आचार्योके होनेमें २०० वर्षका यमें होने चाहिए। यह ग्रंथ कम्मप्पयडीकी अपेक्षा समय मान लिया जाय, तो दिगम्बर सम्प्रदायके मत- बड़ा है । इसकी मूल गाथायें ९६३ हैं । इस से भी वीरनिर्वाणकी दशवीं शताब्दि तक पूर्वज्ञान- पर स्वोपज्ञ ( स्वयं ग्रंथकारकी बनाई हुई ) वृत्ति की परम्पराके अस्तित्वका निश्चय होता है। है जिसका प्रमाण ९ हजार 8 ह टीका --सम्पादक। सर्वत्र नहीं मिलती। पाटनके प्राचीन-भाण्डागारमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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