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mmmmmmmmmom जैनहितैषी।
यशोधीरने प्राचीन काश्मीरी आवृत्ति अर्थात् कर्ताका नाम तक नहीं दिया, किन्तु कर्तातंत्राख्यायिकास भी काम लिया है। के नामके स्थानमें केवल 'श्रीगुणमेरुसरि
डैकन-कालिजके दो हस्तलिखित ग्रंथोंमें -शिष्य' लिखा है। (नं०३१, सन् १८९८-९ और नं० २८८ रत्नसुन्दरने मुख्यतः सरलावृत्तिके आधार सन् १८८२-३ ), कलकत्ताकी लाइब्रेरीके पर अपना ग्रंथ लिखा है और उसमें दो एक हस्तलिखित ग्रंथमें, और एक और कथायें और बढ़ाई हैं, जो वच्छराज और हस्तलिखित ग्रंथमें, जो मुझे मेरे एक जैनध- मेघविजयकी आवृत्तियोंमें भी मिलती हैं । मानुयायी मित्रने दिया था, प्राचीन गुजराती कलकत्तेकी विस्तृत आवृत्तिमें तीन कथायें भाषामें लिखी हुई पंचतंत्रकी तीसरी आवृत्ति और दी हैं, जो अन्य जैनग्रंथोंमें भी मिल. मिलती है। इस आवृत्तिके कर्ता गुणमेरुके नेके कारण प्रसिद्ध हैं । ये कथायें इस ग्रंथके शिष्य जैनमुनि रत्नसुन्दर हैं । यह ग्रंथ कथामुख अर्थात् प्रस्तावनामें लिखी हैं । चौपाइयों और दोहोंमें लिखा है और इसका उपर्युक्त कवियोंके समान देशी भाषाके नाम कथा-कल्लोल है । रत्नसुन्दर, कवियोंका एक समुदाय और भी था। बच्छराज, जिनका नाम केवल कलकत्ताके ग्रंथमें जिन्होंने अपना पंचाख्यान-चौपई संवत् दिया है, पूर्णिमा-पक्ष गच्छके थे और १६४८ ( अर्थात् सन् १९९१-९२ ) में उन्होंने अपना ग्रंथ संवत् १६२२ में अह. लिखा था, इसी समुदायमें थे। वे तपमदाबादके पश्चिममें सानन्द ग्राममें लिखा था। गच्छके थे और रत्नचन्द्र के शिष्य थे, जिनके उन्होंने लिखा है कि मैंने यह ग्रंथ ' गुरुके संबंधों बच्छराजने लिखा है कि वे पवित्र प्रसादसे ' लिखा है।
और सुन्दर भजनोंका प्रचार कर रहे थे। इन ग्रंथोंके आधारपर हम अब यह बच्छराजने अपना ग्रंथ रत्नसुन्दरके ग्रंथके मनोज्ञ बात कह सकते हैं कि जैनसाधुओं- आधार पर लिखा है; क्योंकि उनका ग्रंथ में एक समदाय ऐसे कवियोंका हो गया रत्नसुन्दरके ग्रंथसे बहुतसे अंशोंमें और है जिन्होंने अपनी देशी भाषाओंमें कविता छंदोंके अन्त्यानुप्रासोंमें मिलता है; परन्तु की है। कलकत्तेके ग्रंथमें संशोधित और उनके ग्रंथमें रत्नसुन्दरके ग्रन्थसे १६ कथायें संवर्धित पाठ है; कदाचित् यह रत्नसुन्दर- अधिक हैं। के किसी शिष्यका लिखा हुआ है । इस बच्छराजके ग्रंथका उचित सत्कार हुआ। ग्रंथकी प्रशस्तिमें रत्नसुन्दरकी बहुत किसी कविने, जिसके नामका पता नहीं है, प्रशंसा की गई है, परन्तु दूसरे ग्रंथोंके पाठ- उसका अनुवाद संस्कृत-पद्यमें किया । दुर्भामें इतनी नम्रता प्रकट की गई है कि उनमें ग्यवश मुझे यह अनुवाद नहीं मिल सका
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