Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 41
________________ पुस्तक-परिचय। ३६३ धर्मके आध्यात्मिक साहित्य और कर्मविज्ञानसे किसी पागलखानेसे छूटकर भागा हुआ मनुष्य परिचित हैं, इस लिए अपने कार्यमें यथेष्ट सफल होगा; परन्तु मनुष्यकी सामान्य बुद्धि उसे ऐसा हुए हैं । बड़े ही सुन्दर, गंभीर और रहस्यपूर्ण समझनेसे इंकार करती है । हमारे शास्त्र भी बतविचारोंको उन्होंने प्रकट किया है । पढ़कर लाते हैं कि स्वयं महावीर भगवानकी अपेक्षा हृदय गद्गद हो जाता है और भगवानके गोशालाका अनुयायी समाज अधिक था और प्रति जो भक्तिभावना है वह कई गुणी बढ़ इसीसे मालूम होता है कि उसकी प्रवर्तक शक्ति जाती है। इच्छा थी कि कुछ ऐसे प्रकरण पाठ- और लोगोंके हृदयकी स्पर्शित करनेकी सामर्थ्य कोंके सामने उपस्थित किये जायें; परन्तु स्थान- साधारण न थी।" लेखकने प्रधानतः श्वेताम्बरसंकोचके कारण रुकना पड़ा । लेखकने अपने साहित्यके आधार पर इसकी रचना की है; परन्तु विचार निर्भय होकर प्रकट किये हैं, इसका परिचय उनमें साम्प्रदायिक मोह नहीं है, इस कारण उन्होंने मंखलि गोशाल सम्बन्धी प्रकरणमें मिलता है । जिस कोई बात ऐसी नहीं लिखा है जो दिगम्बरोंको समय महावीर भगवान् अपने विचारोंका प्रचार कर अप्रिय हो । पुस्तकमें भगवान्की मुख्य मुख्य प्रभावरहे थे, उस समय उनका एक प्रतिस्पर्धी था जिसका शालिनी घटनाओं सम्बन्धी पाँच छह चित्र भी नाम मंखलिगोशाल था । बौद्धसाहित्यमें इसका दिये हैं और उनमें तीन चित्र वस्त्रयुक्त नहीं किन्तु अनेक स्थलोंमें उल्लेख मिलता है।आजीवक नामक नग्न चित्रित किये गये हैं और इसके कारण उन्हें सम्प्रदायका प्रवर्तक यही था । इसके अनुयायियोंकी श्वेताम्बरी भाइयोंकी तीव्र समालोचनाका पात्र संख्या महावीरके अनुयायियोंसे भी अधिक थी। बनना पड़ा है। इस पुस्तकके दो चित्र जैनहितैषीके यह पहले महावीरका शिष्य था, परन्तु पछि उनसे पहले अंकमें प्रकाशित हो चुके हैं जिनपरसे पाठक विमुख हो गया था और उनको इसने कष्ट दिया चित्रोंकी उत्तमताका अनुमान कर सकते हैं। था। श्वेताम्बरसाहित्यमें इस कारण हेमचन्द्राचार्य पुस्तक छोटी है, परन्तु इस बातके बतलानेके जैसे समर्थ विद्वानोंने भी साम्प्रदायिक मोहवश उसे लिए अच्छी है कि भगवानका जीवनचरित किस बहुत ही निन्द्य और नीच प्रकृतिका पुरुष बतलाया है. ढंगसे लिखा जाना चाहिए और उसके लिखनेके परन्तु लेखक कहते हैं-"गोशालाको जैसा मर्स. अल्प- लिए किस प्रकारकी योग्यता चाहिए। यदि इसमें बुद्धि और सर्वथा उन्मत्त चित्रित किया है। असल में महावीर भगवान्का एतिहासिक परिचय, उस समवह वैसा नहीं था । यह बिलकुल सच है कि मत- एका यकी परिस्थिति, दिगम्बरश्वेताम्बर दृष्टिसे भगवान का जीवन और उसका तारतम्य, समवसरण आदि. भेदकी दृष्टि अपने सामनेके मनुष्यके वास्तविक - विभूतियोंका रहस्य आदि बातें और जोड़ दी स्वरूपको देखनेमें अन्तराय डालती है और हम हम जायँ, तो एक जीवनचरितकी आवश्यकताकी अपने रागद्वेषके तारतम्यके अनुसार उसके वास्तविक बहुत कुछ पूर्ति हो जाय । मूल्य डेढ़ रुपया। स्वरूपको न्यूनाधिक अंशमें विकृत देखते हैं, हमें आशा है कि जो विद्वान् गुजराती समझ तो भी इस प्रकरणमें इन मतभेदके कारणोंसे गोशाला- सकते हैं वे इस पुस्तकको मँगाकर अवश्य पढ़ेंगे को जिस रूपमें कितने ही जैनग्रन्थकारोंने अपने आगे और लेखक तथा प्रकाशकके परिश्रमकी कदर करेंगे। उपस्थित किया है, वह किसी भी प्रकार क्षन्तव्य २ महावीर-भक्त मणिभद्र। नहीं हो सकता । हेमचन्द्राचार्यकी रचना पढ़कर इस पुस्तक के लेखक और प्रकाशक भी वे ही अज्ञान लोग यही समझ लेते हैं कि वह गोशाला हैं जो महावीरजीवनविस्तारके हैं। यह एक उप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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