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अपनी प्रशस्तिमें लिखा है कि एक राज-मंत्री- लाकर निर्माण की गई हैं। उनमेंसे कुछ मने उनको प्राचीन शास्त्र पंचतंत्रकी, जो नोरंजक हैं क्योंकि उनमें नई कथायें भी ‘विशीर्ण कर्ण' हो गया था, संशेधित लिखी गई हैं । इन मिश्रित आवृत्तियों से आवृत्ति तैयार करनेकी आज्ञा दी । वे आगे एक आवृत्ति के कुछ अंशका अनुवाद यूनानी चलकर लिखते हैं कि उन्होंने यह काम भाषामें एक यूनानी व्यापारी डैमैट्रीओस बड़ी सावधानीके साथ किया और ग्रंथका गेलेनोस द्वारा हो चुका है। यह व्यापारी केवल संशोधन ही न किया, किन्तु उसमें सन् १७८६ ई० में कलकत्ता गया था और नई बातें भी बढाई । उनके ग्रंथकी ध्यान- वहाँपर ब्राह्मणोंके साथ रहकर उनके दर्शनपूर्वक देख-भाल करनेसे और ग्रंथोंका मिलान शास्त्र और साहित्यका अध्ययन करता रहा करनेसे मालूम होता है कि उनका कथन और उसने अपनी मृत्यु तक, जो सन् सर्वथा ठीक है। पूर्णभद्रने मुख्यतः सरला- १८८३ ई० में हुई, कई संस्कृत ग्रंथोंका वृत्तिको तंत्राख्यायिकाके साथ मिला दिया, अनुवाद अपनी मातृभाषामें किया । परन्तु उन्होंने इनसे प्राचीन ग्रंथोंकी भी देख बैनफेका जर्मन अनुवाद ( १८५८ ई०), भाल अवश्य की होगी, क्योंकि उनके ग्रंथका ई. लासेरौका फ्रेञ्च अनुवाद ( १८७१ ई०), पाठ कई स्थानोंमें केवल पहलवी अनुवाद आई पिज्जीका इटालियन अनुवाद (१८९६ अथवा सोमदेवकृत संक्षिप्त आवृत्ति अथवा ई०), और एच. रसमुस्सेनका डेनिश अनुवाद क्षेमेन्द्रकी आवृत्तिसे ही मिलता है । इसके (१८९३ई०)ये सब कोजगार्टनके भ्रष्ट पाठसे सिवाय उन्होंने सोलह कथायें अपनी और किये गये हैं, और शिमिटका जर्मन अनुवाद से बढ़ा दीं । चूंकि मुझे कई अति प्राचीन (१९०१ ई० .) पूर्णभद्रकी आवृत्तिके दो
और अलभ्य हस्तलिखित प्रतियोंके देख- रूपान्तरोंके आधार पर हुआ है। नेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था, इस लिए मैं मैं यहाँपर अत्यन्त प्राचीन जैन आव. अपने पंचतंत्रमें ऐसा पाठ देनेको समर्थ हुआ त्तियोंके संस्कृत रूपान्तरों और उनसे मिल हूँ जो स्वयं ग्रंथकर्ताके लिखे हुए पाठसे कर बनी हुई मिश्रित आवृत्तियोंके विषयमें बहुत ही मिलता जुलता है। मेरे इस ग्रंथ- कुछ कहना नहीं चाहता। इन रूपान्तरोंमें का अँगरेजी अनुवाद पाल एलमर मोरने कई संक्षिप्त आवृत्तियाँ हैं और एक ऐसा किया है और वह हारवर्ड ओरिएंटल सीरी. संग्रह भी है जिसमें मूल (व्यापक ) कथाको जमें प्रकाशित होगा।
निकाल कर केवल वे ही कथायें फुटकर रूपमें पंचाख्यानकी बहुतसी हस्तलिखित प्रतियाँ लिखी हुई हैं, जो मूल कथाके अंतर्गत हैं। जो उत्तर-पश्चिम भारतवर्षमें प्रचलित हैं स- जैनग्रंथावली, पृष्ठ २२५, नं. ७९ के रलावृत्ति और पूर्णभद्रके पाठोंके अंशोंको मि• अनुसार पंचाख्यान-तारोद्धार नामक एक
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