Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ जैन लेखक और पंचतंत्र। ३३७ हुआ है । परन्तु इन दोनों विद्वानोंको केवल दुर्भाग्य समझना चाहिए कि मुझे इन एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई थी और यह प्रतियोंके देखनेकी आज्ञा न मिली । मैं प्रति भी प्राचीन न थी और उसमें कमसे कम दावेके साथ कह सकता हूँ कि पंचतंत्रकी आठ कथायें पीछेसे जोड़ी हुई थीं। इस भिन्न भिन्न आवृत्तियाँ इतनी किसीने भी नहीं संस्करणका सन् १८८४ ई० में लबविग देखीं जितनी मैंने देखी हैं । यदि पाटन फ्रिगने जर्मन भाषामें और सन् १८८५-७९ और अहमदाबाद इत्यादिकी प्रतियाँ मेरे ई० में एच. जी. बान डर वाल्सने डचभाषा- पास परक्षिाके लिए भेज दी जाय, तो मैं में अनुवाद किया। थोड़े ही समयमें इस प्रसिद्ध ग्रंथके इतिहासमें इस आवृत्ति ( सरलावृत्ति ) की बहतसी इन प्रतियोंकी उपयोगिताको दिखानेके हस्तलिखित प्रतियोंकी मैंने परीक्षा की और योग्य हो जाऊँगा । सार्वजनिक संस्थाओं उनके पाठमें बहुत अंतर पाया। नई प्रति- और भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानोंद्वारा मिली योंके तैयार करनेमें प्राचीन ( हस्तलिखित) हुई अनेक प्रतियोंका जो उपयोग मैंने किया प्रतियोंसे बार बार नकल करनी पडी है है वह सिद्ध करता है कि मैं ऐसी सहा और मिलान करना पड़ा है, इस लिए प्राचीन यताका पात्र हूँ और मेरी खोजोंसे प्रतियाँ जीर्ण हो गई हैं । जैन विद्वानोंका जनसाहित्यको र जैनसाहित्यकी ख्यातिमें बहुत वृद्धि कर्तव्य है कि वे अपने संप्रदायके एक हुई है। अत्यन्त सफल लेखकके उपकारका 'सरलावृत्ति' ने बड़ी भारी सफलता बदला चुकानेके लिए इस आवृत्ति प्राप्त की । इसके बाद पंचतंत्रके जितने रूपा(सरलाटत्ति ) की उत्तम और प्राचीन न्तर हुए-चाहे वे जैनोंने अथवा हिन्दुओंने, प्रत्तियोंकी-ऐसी प्रतियोंकी जिनमें प्रशि- साधुओंने अथवा श्रावकोंने लिखे हों और स्ति हो-खोज करें; तभी यह संभव चाहे गुजरातमें, महाराष्ट्रमें, दक्षिणमें, ब्रह्मामें होगा कि लेखकके नाम और समयका अथवा नैपालमें लिखे गये हों वे सब या तो पता लगाया जाय और 'सरलात्ति' सरलावृत्तिके आधार पर ही लिखे गये या जैसे भद्दे और अनुपयुक्त नामको दूर उनके लिखनेमें इस आवृत्तिसे बहुत सहायता कर दिया जाय । निस्संदेह ऐसी हस्त- ली गई । लिखित प्रतियाँ अब भी मौजूद होंगी। समय-क्रमसे सरलावृत्तिके पश्चात् जैन___ पाटन और अहमदाबादके उपाश्रयोंमें मुनि पूर्णभद्र सूरिकी आवृत्तिका नम्बर है। अब भी पंचाख्यानकी बहुत सी प्रतियाँ मौ- उन्होंने अपना ग्रंथ सन् ११९९ ई० अर्थाजूद हैं, परन्तु इसको जैनसाहित्यका त् संवत् १२५५ में लिखा था। उन्होंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106