Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 14
________________ जैन लेखक और पंचतंत्र | (गताङ्ककी पूर्ति | ) ले० - बाबू मोतीलालजी जैन बी. ए. । कोज गार्टनने इस पंचाख्यानका ही लैटिन नाम 6 टैक्सट सिम्प्लिसिअर ' अर्थात् ' सरलावृत्तिं ' रक्खा था और इस ग्रंथको एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथका किसी ब्राह्मणद्वारा किया हुआ रूपान्तर समझा था । इस सरलावृत्ति और प्राचीन तंत्राख्यायिकामें इतनी अधिक भिन्नता है कि हम इसे एक सर्वथा नया ग्रंथ कह सकते हैं जो तंत्राख्यायिकाके आशयकों लेकर लिखा गया है । निस्संदेह यह ग्रंथ किसी राजा या उसके मंत्रीकी आज्ञासे लिखा गया होगा । उस राजा या मंत्रीको उस समय जो पंचतंत्र प्रचलित था उसकी एक नई आवृ त्तिकी आवश्यकता हुई होगी । सरावृत्तिके कर्ता ने अपने ग्रंथ में प्राचीन ग्रंथकी अधिकांश कथाओं को शामिल किया और बहुतसी नये ढंगकी नई कथायें अपनी ओरसे बढ़ा दीं। इसके सिवाय उसने कामंद कीय नीतिसारसे भी - जिसका तंत्राख्यायिकाके कर्ताको पता भी न था - बहुत कुछ उद्धृत किया । यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य और उत्तर-पआवृत्तिके कर्ताने 1 भाषा श्चिम भारतीय संक्षिप्त १ Textus Simplicior. २ जिसका पाठ सरल हो अर्थात जो बहुत पेचीदा और अलंकृत न हो। Jain Education International प्राचीन गद्य-पाठका केवल अनुवाद किया अथवा उसको संक्षेपमें लिख दिया, परन्तु सरलावृत्तिके कर्ताने अपना ग्रंथ एक नये ढंगसे और एक नई शैलीसे लिखा । वह ऊँची श्रेणीका कथाकार हैं, जो यह जानता है कि श्रोताओं अथवा पाठकोंको मनोविनोद द्वारा किस तरह उपदेश दिया जा सकता है; और उसने अपनी ओर से जो कथायें बढ़ाई हैं वे पंचतंत्र के समस्त कथा-संग्रह में सर्वोत्तम हैं । प्राचीन आवृत्तियोंमें चौथे और पाँचवें तंत्र बहुत ही संक्षेपमें दिये हैं; सरलावृत्तिके कर्ताने, जिसके नामतकका पता नहीं है, उनको बढ़ा कर पहले तीन तंत्रों के बहुत कुछ समान कर दिया । यह काम उसने इस तरह किया है। उसने तीसरे और चौथे तंत्रोंकी और प्राचीन पाँचवे तंत्रकी, - जिसमें दो कथायें पीछे से मिलाई हुई जान पड़ती हैं- कथाओं के कुछ अंशोंको निकाल कर उनकी जगह पर एक सर्वथा नई कथा रख दी, जिसमें व्यापक कथाके सिवाय ग्यारह अवान्तर कहानियाँ और हैं । इस आवृत्तिका प्रायः ठीक ठीक ज्ञान केवल कीलहार्न और बुल्हरके संस्करणसे हो सकता है, जो बम्बईकी संस्कृत सीरीज के पहले, तीसरे और चौथे अक्रोंमें प्रकाशित For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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