Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 32
________________ H A ३५४ MARITHILITARATHIRAIATIALALIRAL जैनहितैषी तदिहास्ति समस्तं च वृत्तियोंमें वही सबसे बड़ी है। दूसरे ऊपर यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ॥ २०॥ लिखी हुई दोनों प्रशस्तियोंके कुछ भाग गणधातुपाठयोर्गणधातून लिंगानुशासने लिंगगतं । समान हैं जो यह बतलात हैं कि एक वृत्ति औणादिकानुणादौ शेषं दूसरीको देखकर या उसीको संक्षेप करके निःशेषमत्र वृत्तौ विद्यात् ॥११॥ बनाई गई है। ' इति वर्णसमाम्नायः' आदि बालाबलाजनोप्यस्या पाठ दोनोंके मिलते जुलते हुए हैं । अन्तर वृत्तेरभ्यासवृत्तितः। समस्तं वाध्ययं वेत्ति केवल यह है कि जहाँ अमोघवृत्तिमें वर्षेणैकेन निश्चयात् ॥१२॥ 'सामान्याश्रयणात् ' लिखा है वहाँ चिन्तातत्र सूत्रस्यादावयं मङ्गलश्लोकः । नमः श्रीवर्द्धमाना- मणिमें ' सामान्यग्रहणात् ' है। तीसरे यक्षयेत्यादि। शब्दार्थसम्बन्धार्था वाचकवाच्ययोग्यता अथवा आगमप्रयोजनोपायोपेयभावाः ते येन सर्वसत्वहितेन तत्त्वतः प्रज्ञापिताः तस्मै श्रीमते महावीराय साक्षात्कृत्स- मानायेत्यादि ' प्रतीक दी है, वह अमोघ कलद्रव्याय नमःकरोमीत्यध्याहारः । विघ्नप्रशमनार्थ- वत्तिमें ही मिलता है । मूलका या अन्य महद्देवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः किसी वृत्तिका वह श्लोक नहीं है । इस शाकटायनः शब्दानुशासनं शास्त्रमिदं प्रारभते । धर्मार्थकाममोक्षेषु तत्त्वार्थावगतिर्यतः। ___श्लोकके उत्तरार्धकी व्याख्या भी अमोघशब्दार्थज्ञानपूर्वेति वेद्यं व्याकरणं बुधैः॥ वृत्तिसे थोड़ा बहुत इधर उधर करके अ इ उ ण् । ऋक् । ए औ ङ् । ... ... नकल कर दी गई है। इन सब बातोंसे यह हल इति वर्ण समानायः क्रमानुबाधोपादानः तो निश्चय हो गया कि चिन्तामाण टीका प्रत्याहारयन् शास्त्रस्य लाघवार्थः । सामान्यग्रहणाद्दीर्घप्लुतानुनासिकानां ग्रहणम् । - अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और वह अमोघ -चिन्तामणि। वृत्तिका ही संक्षेप है। . चिन्तामणिके कर्ता यक्षवर्माने उपरिलिखित यक्षवर्माने अपनी टीका अमोघवृत्तिों सातवें श्लोकमें कहा है कि “यह उसकी ही कुछ फेरफार करके बनाई है, यह बात छोटी वृत्ति है जिसे मैंने उसकी ( शाकटायन- दोनों टीकाओंका मिलान करनेसे अच्छी की ) बहुत बड़ी भारी वृत्तिसे संक्षिप्त करके तरह समझमें आ जाती है । कुछ उदाहबनाया है।" वे यह नहीं कहते कि यह मेरी रण लीजिए:स्वतंत्र रचना है। अब यह देखना चाहिए कि । नामदुः १।१।१७ (मूल शाकटायनसूत्र) यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटानियुज्यते देवदत्तादि है जिसको संक्षिप्त करके यह लिखी तसंज्ञ वा भवति। देवदत्तीया दैवदत्ताः । षड्नया नाहुः सिद्धसेनीयाः सैद्धसेनाः । (-अमोघवृत्ति।) ___ यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटानियुज्यते देवदत्तादि होगा कि वह वृत्ति और कोई नहीं अमोघ. तद्दु संज्ञं वा भवति । देवदत्तीया देवदत्ताः । वृत्ति ही है । क्योंकि एक तो उपलब्ध (-चिन्तामणिटोका) www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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