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पांच श्रुत केवली
राण्ह काल में समस्त संघ में घोषणा की कि यहाँ बारह वर्ष का घोर दुर्भिक्ष होने वाला है। अतः सब संघ को समुद्र के समीप दक्षिण देश में जाना चाहिए।
सम्राट चन्द्रगुप्त में रात्रि में सोते हुए सोलह स्वप्न देखे। वह प्राचार्य भद्रबाहु से उनका फल पूछने पोर धर्मोपदेश सुनने के लिये उनके पास आया और उन्हें नमस्कार कर उनसे धर्मोपदेश सुना, अपने स्वप्नों का फल पूछा। तब उन्होंने बतलाया कि तुम्हारे स्वप्नों का फल अनिष्ट संसूचक है। यहाँ बारह वर्ष का घोर भिक्ष पड़ने वाला है, उससे जन-धन की बड़ी हानि होगी। चन्द्रगुप्त ने यह सुनकर और पुत्र को राज्य देकर भद्रबाहु से जिन-दीक्षा ले लो। जैसा कि तिलोयपणती को निम्न गाथा से स्पष्ट है -
मउडघरेसु चरिमो जिणविक्खं धरदि चन्द्रगुत्तो य ।
तत्तो मउउधरा पव्वज्जं व गेहति ।। -तिलो०प०४-१४-१
भद्रबाहु वहाँ से ससंघ चलकर श्रवणबेलगोल तक पाये। भद्रबाहु ने कहा-मेरा प्रायुप्य अल्प है, अतः मैं यहीं रहूँगा, और संघ को निर्देश दिया कि वह विज्ञानाचार्य के नेतृत्व में आगे चला जाये। भद्रवाह श्रुतकेवलो होने के साथ अष्टांग महानिमित्त के भी पारगामो थे, उन्हें दक्षिण देश में जैनधर्म के प्रचार की बात ज्ञात थी, तभी उन्होंने बारह हजार साघुत्रों के विशाल संघ को दक्षिण की ओर जाने की अनुमति दी।
भद्रबाह ने सब संघ को दक्षिण के पाण्ड्यादि देशों को ओर भेजा, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि वहाँ जन साघमों के प्राचार का पूर्ण निर्वाह हो जायगा। उस समय दक्षिण भारत में जैनधर्म पहले से प्रचलित था। यदि जैनधर्म का प्रसार वहाँ न होता, तो इतने बड़े संघ का निवांह वहाँ किसी तरह भी नहीं हो सकता था। इससे स्पष्ट है कि वहाँ जैनधर्म प्रचलित था । लंका में भी ईसवी पूर्व चतुर्थ शताब्दी में जैनधर्म का प्रचार था, और संघस्य साधुनों ने भी वहाँ जनधर्म का प्रचार किया। तमिल प्रदेश के प्राचीनतम शिलालेख मदुरा और रामनाड जिले से प्राप्त हुए हैं जो अशोक के स्तम्भों में उत्कीर्ण लिपि में है। उनका काल ई० पूर्व तीसरी शताब्दी का अन्त और दूसरी शताब्दी का प्रारंभ माना गया है। उनका सावधानी से अवलोकन करने पर 'पल्लो', 'मदुराई' जसे कुछ तमिल शब्द पहचानने में आते हैं। उस पर विद्वानों के दो मत है। प्रथम के अनुसार उन शिलालेखों की भाषा तमिल है, जो अपने प्राचीनतम अविकसित रूपों में पाई जाती है। और दूसरे मत के अनुसार उनको भापा पंशाची प्राकृत है जो पाण्ड्य देश में प्रचलित थी। जिन स्थानों से उक्त शिला लेख प्राप्त हुए हैं, उनके निकट जैन मन्दिरों के भग्नावशेष और जैन तीर्थकरों की मूर्तियां पाई जाती हैं, जिन पर सा का फण या तीन छत्र अंकित हैं ।
बौद्ध ग्रन्थ महावंश को रचना लंका के राजा धंतुसेणु (४६१-४७९ ई.) के समय हुई थी। उसमें ५४३ ई० पूर्व से लेकर ३०१ ई० के काल का वर्णन है। ४३० ई० पूर्व के लगभग पाण्डुगाभय राजा के राज्यकाल में अनुराधापुर में राजधानी परिवर्तित हुई थी। महाबंश में इस नगर की अनेक नई इमारतों का वर्णन है। उनमें से एक इमारत निर्ग्रन्थों के लिये थी, उसका नाम गिरि था और उसमें बहुत से निर्ग्रन्थ रहते थे। राजाने निर्ग्रन्थों के लिये एक मन्दिर भी वनवाया था। इससे स्पष्ट है कि लंका में ईसा पूर्व ५वीं शती के लगभग जैनधर्म का प्रवेश हाना होगा।
१. भावाबवः अरवा चन्द्रगुप्तो नरेश्वरः ।
अम्यंत्र शोगितः पावं दधी जनेश्वर तपः ।। चन्द्रगुप्तनुनिः शीन प्रथमो दाविणाम् । सर्वगंधाभिषा जातो विसवाचार्य संजकः ।।-हरिपेण कथाकोण १३१ (क) - चरिमो मउड वरीमो सारवइणा चन्द्रगुलणामाए ।
पंचमहन्वयगहिया प्ररि रिक्वा (म) बोच्छिण्णा ॥ श्रुतस्कन्ध ब० हेमचन्द्र (ख)तदीपशिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः समपशीलानतदेववृद्धः ।
विवेश यस्तीवतपः प्रभाव-प्रभूत-कीति बनान्तराणि ॥ - श्रवणबेलगोल शि०११०२१. २. स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म प० ३२ प्रादि ३. देखें, जैनिज्म इन साउथ इण्डिया, पृ० ३१