Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 516
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ भट्टारक ज्ञानभूषण ज्ञान भूषण नाम के बार विद्वानों का उल्लेख मिलता है उनमें तीन ज्ञान भूषण इनके बाद के विद्वान हैं। प्रस्तुत ज्ञान भूषण मूलसंघ सरस्वती गच्छ बलात्कारगण के भट्टारक सकलकीर्ति को परम्परा में होने वाले भ० भुवनकीर्ति के पट्टधर थे' । यह संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान और कवि थे। गुजरात के निवासों थे, प्रतएव गुजराती भाषा पर इनका अधिकार होना स्वाभाविक है। यह सागवाड़ा गद्दी के भट्टारक थे। यह सं० १५३१ में भुवनकीति के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । और वे उस पर १५५७ तक प्रवस्थित रहे हैं। पश्चात उन्होंने स्वयं विजयकीति को अपने पद पर प्रतिष्ठित कर भट्टारक पद से निवृत्ति ले ली। भट्टारक पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई। ५०४ गुजरात में इन्होंने सागराध और आभीर देश में श्रावक की एकादश प्रतिमानों को धारण किया था। मौर दाम्वर (बागड़ ) देश में पंचमहाव्रत धारण किये थे। इन्होंने भट्टारक पद पर पासीन होकर ग्राभीर, बागड़ तौलब तैलंग, द्रविण, महाराष्ट्र और दक्षिण प्रान्त के नगरों और ग्रामों में विहार ही नहीं किया, किन्तु उन्हें सम्बोधित किया और सम्मार्ग में लगाया था। द्रविण देश के विद्वानों ने इनका स्तवन किया था, और सौराष्ट्र देशवासी बनी श्रावकों ने उनका महोत्सव किया था उन्होंने केवल उक्त देशों में ही धर्म का प्रचार नहीं किया था किन्तु उत्तरप्रदेश में भी जहाँ तहाँ विहार कर धर्म मार्ग की विमल धारा बहाई यो । जहाँ यह विद्वान और कवि थे, वहाँ ऊंचे दर्जे के प्रतिष्ठाचार्य भी थे । भ्राप के द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भाज भी उपलब्ध हैं। इन्होंने भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित होते ही सं० १५३१ में डूंगरपुर में सहस्रकूट चैत्यालय की प्रतिष्ठा का संचालन किया। सं० १५३४ को प्रतिष्ठिापत मूर्तियां कितने ही स्थानों पर मिलती हैं। सं० १५३५ में उदयपुर में प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न किया । सं० १५४० में बड़ श्रावक लाखा और उसके परिवार ने इन्ही के उपदेश से प्रादिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई थी । ऋषभदेव के यशः कीर्ति भण्डार की पट्टावली से ज्ञात होता है कि ज्ञान भूषण पहले भ० विमलेन्द्र के शिष्य थे । और इनके सगे भाई एवं गुरु भ्राता ज्ञानकीति थे। यह गोलालारीय जाति के श्रावक थे। सं० १५३५ में सागवाड़ा और नोगाम में महोत्सव एक ही साथ प्रायोजित होने से दो भट्टारक परम्पराएं स्थापित हो गई। सागरवाड़ा की प्रतिष्ठा के संचालक थे भ० ज्ञानभूषण और नोगाम की प्रतिष्ठा के संचालक थे ज्ञानकोति । ज्ञानभूषण बडसाजनी के - भट्टारक माने जाने लगे और ज्ञानकीर्ति लोहड साजनों के भ० कहलाने लगे। बाद में यह भेद समाप्त हुया और भ० ज्ञान भूषण ने भुवन कीर्ति को गुरु मानना स्वीकार किया । म० ज्ञान भूषण अपने समय के अच्छे प्रतिभा सम्पन्न भट्टारक थे। डा० कस्तूरचन्द कासली वाल ने द्वितीय ज्ञानभूषण की रचनाओं को प्रथम ज्ञानभूषण को रचनाएँ मान लिया है। जो ठीक नहीं हैं । सिद्धान्तसार भाष्य, पोषहरास, जलगालनरास आदि रचनाएँ द्वितीय ज्ञानभूषण की हैं। जो लक्ष्मीचन्द वीरचन्द के शिष्य थे । और सूरत की गद्दी के संस्थापक भ० देवेन्द्र कीर्ति के परम्परा के विद्वान थे। सबसे पहले पं० नाथूराम जी प्रेमी ने सिद्धान्तसार भाष्य को प्रथम ज्ञान भूषण की कृति माना था। डा० ए० एन० उपाध्याय ने कार्तिकेयाणुप्रेक्षा की प्रस्तावना पृ० प० पर सिद्धान्तसार भाष्य को इन्हीं ज्ञान भूषण की कृति लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता । १. विख्यातो वन्दादि कीर्ति मुनिय: श्री मूलसंघेऽभवत् । तत्पट्टे ऽजनि बोधभूषण मुनिः स्वात्मस्वरूपे रतः । जाता प्रीति रतीयस्य महरा कल्याणकेषु प्रभो - स्तेनेदं विहितं ततो जिनपतेराद्यस्य तद्वर्णणं ॥ २. शुभ चन्द्र गुर्वावली ३. देखो, राजस्थान के जैन संत, पृ० ५४-५५ ४. देखो. सिद्धान्तसारादि संग्रह की भूमिका पृ० है आदिनाथ फाग म०

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