Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 557
________________ १११११ और १६ब्दी के प्राचार्य भट्टारक और कवि ૧૪: ग्रागरा में पं० रूपचन्द्र जी गुनो का आगमन हुआ और उन्होंने तिता साहू के मन्दिर में डेरा किया। उस समय घागरा में सब अध्यात्मयों ने मिलकर विचार किया कि उक्त पंडित जी से प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती द्वारा रचित गोम्मटसार ग्रन्थ का वाचन कराया जाय। चुनांचे पंडित जी ने गोम्मटसार ग्रन्थ का प्रवचन किया और मागंगा, गुणस्थान, जीवस्थान तथा कर्मबन्धादि के स्वरूप का विशद विवेचन किया। साथ ही क्रियाकाण्ड और निलय व्यवहार नम की यथार्थ कथनी का रहस्य भी समझाया धौर यह भी बतलाया कि जो नए दृष्टि से विहीन हैं उन्हें वस्तु स्वरूप की उपलब्धि नहीं होती तथा वस्तु स्वभाव से रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकते। पंडित रुपचन्द्र जी के वस्तुविवेचन से पं० बनारसी दास का वह एकान्त अभिनिवेश दूर हो गया जो उन्हें और उनके साथियों को 'नाटक समयसार' की रायमल्लीय टीका के अध्ययन से हो गया था और जिसके कारण वे जप, तप, सामायिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं को छोड़कर भगवान को बड़ा हुआ नैवेद्य भी खाने लगे थे। यह दशा केवल बनारसी दास जी की नहीं हुई किन्तु उनके साथी 'चन्द्रभान, उदयकरन और पानमस्ल की भी हो गई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक कोठरी में फिरते थे और कहते थे कि हम मुनिराज हैं, हमारे पास कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्धकथानक के निम्न दोहे से स्पष्ट है : "जगन होंहि चारों जमे फिरहि कोठरी मांहि । कहि नये मुनिराज हम कछु परिग्रह नाहि ।" यांचे रूप जी के वचनों को सुनकर बनारसी दास जी का परिणमन और रूप ही हो गया। उनकी दृष्टि में सत्यता और पदा में निर्मलता का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उसे दूर किया। उस समय उनके हृदय में धनुषमज्ञान ज्योति जागृत हो उठी थी, और इससे उन्होंने अपने को स्याद्वाद परिणति' से परिणत बतलाया है। सं० १६९३ में पं० बनारसी दास ने प्राचार्य अमृत चन्द्र के 'नाटक समयसार कलश' का हिन्दी पद्यानुवाद किया और संवत् १६६४ में पंडित रूपचन्द्र जी का स्वर्गवास हो गया । १. सं० १६६० के लगभग रूपचन्द्र का आगरा में आगमन हुआ । अनायास इस हो समय नगर धागरे धान । रूपन्द्र पंडित गुनी प्रयोगमजान ।। ६३० बिना साहू देहरा किया, वहाँ पाय तिन देश जिप अर्धकथानक तिनका यह देहरा ० १६५९ से पहले का बना हुआ है। कविवर भगवती दास १६५१ में निर्मित अर्गलपुर जिनमंदिर के पक्ष में इसका उल्लेख किया है। २. सब मामी कियो विचार, ग्रंथ बंचायो गोम्मटसार । तामे गुनानक परवान कह्यो ज्ञान यह क्रिया विधान ॥ ३. अनायास इसही समय नगर मारे थान, रूपचन्द्र पण्डित गुनी आयो आगमजान | किया आप जिन डेरा नया में गुत यानक गरवान कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । जो जिये जिसगुनयानक होइ, जैसी किया करें सत्र को ६३२ भिन्न-भिन्न विवरण विस्तार अन्तरनियत र व्यवहार सबकी कथा कहो, मुनिना रही ३३ सम् बरसी ओरहि भयो, स्पाद्वाद परिणति परियो । प िरूपचन्द्र गुरु पास, सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास ॥६३४ फिर तिस समय बरस के बीष, रूपचंद्र को आई मीच । सुन-सुन रूपचन्द्र के चैन, बनारसी भयो दिन ६१५ बारीकियी विचार धन्य बनायो गोम्मट ३१ अक्षं कथानक

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