Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 558
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अर्ध कथानक के इस उल्लेख से मालूम होता है कि प्रस्तुत पांडे रूपचन्द्र ही उक्त 'समवसरण पाठ' के रचयिता हैं कि उक्त पाठ भी संवत् १६६२ में रचा म रचा गया है और पं० बनारसो दास जो ने उक्त घटना का समय भी अर्धकथानक में सं० १६१२ दिया है। कि उक्त पाठ प्रागरे को घटना से पूर्व हो रचा गया था, इससे प्रशस्त में उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया । पं० बनारसी दास ने नाटक समयसार को रचना सं. १६९३ में समाप्त की है। प्रोर स. १६६४ में रूपचन्द्र की मृत्यु हो गई। अतः नाटक समयसार प्रशस्ति में पांच विद्वानों में पं. रूपचन्द्र प्रयम का उलाख किया है। वे वही रूपचन्द्र हैं जो आगरा में सं० १६६० के लगभग आये थे। इनकी संस्कृत भाषा की एकमात्र कृति 'समवसरण पाठ अमवा केवल ज्ञान कल्याणा है। इसमें जन तीर्थकर के केवलज्ञान प्राप्त कर लेने पर जो अन्तर्वाह्य विभति प्राप्त होता है, अथवा ज्ञानावरण, दर्शनाबरग, मोहनीय और अन्तरायरूप धातिया नर्मों के विनाश से अनन्त चतुष्टय रूप प्रात्म निधि की समुपलब्धि होता है उसका वर्णन है। साथ ही बाह्य में जो समवसरणादि विभूति का प्रदर्शन होता है वह सब उनके गुणातिशय अथवा पुण्यातिशय का महत्व है-वे उस विभूति से सर्वथा अलिप्त अन्तरीक्ष में विराजमान रहते है और बीत मुग विज्ञान रूप आत्म-निधि के द्वारा जगत का कल्याण करते हैं, ससार के दुखी प्राणियों को उससे छुटकारा पाने मोर शाश्वः तुज प्राप्त करने का सुगम मागं बतलाते हैं। कवि ने इस पाठ की रचना आचार्य जिनमेन के आदि पूराण गत 'समवसरण' विषयक कथन को दृष्टि में रखते हए की है। प्रस्तुत ग्रन्थ दिल्ली के बादशाह जहांगीर के पत्र शाहजहाँ के राज्य काल में गंवन् १६६१ के अाश्विन महीने के कृष्ण पक्ष में नवमी गुरुवार के दिन, सिद्धि योग में और पुनर्वसु नक्षत्र में समान हुमा है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है: श्रीमत्संवत्सरेऽस्मिन्नरपति नुत पविक्रमादित्य राज्येऽतीते दगनंद भद्राशुक्रत परिमिते (१६६२) कृष्णपक्षे च मासे । देवाचार्य प्रचारे शुभनवमतिथी सिद्धयोगे प्रसिद्ध । पौनर्वस्वित्पुङस्थे (?) समवसतिमहं प्राप्त माप्ता समाप्ति । पं. रूपचन्द्र ने केवल ज्ञान कल्याणक पूजा' के बनवाने में प्रेरक भगवानदास के कुटुम्ब का विस्तृत परिचय दिया है जो इस प्रकार है: मूल संघान्तर्गत नन्दिसंघ, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ के प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय में वादी रूपी हस्तियों के मद को भेदन करने वाले सिंहकीति हुए । उनके पट्ट पर धर्मकीर्ति, धर्मकीति के पट्ट पर ज्ञानभूषण, शानभषणा के पट्ट पर भारती भूषण तपस्वी भवारकों द्वारा अभिनन्दनीय विगत दुषण भट्टारक जगतभूषण हुए। इन्हीं भ. जगभूषण की गोलापूर्व' आम्नाय में दिव्यनयन हुए। उनकी पत्नी का नाम दुर्गा था। उसमे दो पुत्र हुए। - - ---- -- १. यह उपजाधि है जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नही है। इसका निवास अधिवनर बुंदे नखण्ड में पाया जाता है यह सागर, दमोह जबलपुर, छतरपुर, पन्ना, सतना, रीवा, अहार, महोत्रा, नाबई, ये ना, हिरी दिल्ली और ग्वालियर के आरा-पास के स्थानों में भी निवास करते हैं। १२वीं और १६वी दादी के मुनि नेगों में इसको समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता है। इस जाति का निकास 'गोल्लागढ़' (गोनाकोर) को पूर्व दिशा से हुआ है। उसकी पूर्व दिशा में रहने वाले गोजपूर्व कहलाए। यह जाति किसी समय श्वापु वंशी क्षश्चि श्री। किन्तु व्यापार आदि करने के कारण वणिकों में इनकी गणना होने लगी। ग्वालियर के पास कितने ही गोनापूर्व विद्वानों ने ग्रन्थ रचना और मय प्रतिलिपि करवाई है। ग्वालियर के अन्तर्गत श्योपुर (शिवपुरी) में ऋषि धनराज गोलापर्व ने सं० १६६४ से कुछ ही समय पूर्व भव्यानंद पंचासिका' (भक्तामर का भावा पद्यानुवाद) किया था और उनके पितष्य जिनदास के पुत्र सागसेन (असिसेन) ने पन्द्रह-पन्द्रह पदों की एक संस्कृत जयमाला बनाई थी। इसकी एक जोर्ण-शीएं सचित्र प्रति मूनि कान्तिसागर जी के पास थो। धनराज का हिन्दी पद्यानुवाद पाडे हेमराज

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