Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 566
________________ 554 जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग 2 आमेर में प्रतिष्ठित हुए थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान थे। भ. देवेन्द्र कीति ने 'समयसार' ग्रन्थ की एक टीका 'ईसरदे' ग्राम में संवत् 1758 में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को बनाकर समाप्त की थी। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट है : वस्वष्टयुक्तसप्तेन्दयुते (1788) वर्षे मनोहरे। शुक्ले भाद्रपदे मासे चतुर्वश्यां शुमे तिथौ // 1 ईसरदेति सद्ग्रामे टोकर पूणितामिता। भट्रारक जगत्कीर्तेः पट्टे देवेन्द्रकीतिना // 2 दुष्कर्महानये शिष्य मनोहर-गिरा कृता। टीका समयसारस्य सुगमा तत्वबोधिनी // 3 इस टीका का नाम कवि ने 'तत्वबोधिनी' दिया है। कवि का समय विक्रम को १८वों ताब्दी का अन्तिम चरण है। म. धर्मचन्द्र मूलसंघ बलात्कार गण भारतीगच्छ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य थे। इन्होंने अपनो.परम्परा निम्न प्रकार बतलाई है-नेमिचन्द्र, यशः कीर्ति, भानुकोति और श्रीभूषण 1 इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र सेठी था। यह संवत् 1712 में पट्ट पर बैठे थे। और उस पर 15 वर्ष तक रहे। इनका पट्ट स्थान महरोठ था। भट्टारक धर्मचन्द्र ने वि० सं० 1726 में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया शुक्रवार के दिन रघुनाथ नामक राजा के राज्य में महाराष्ट्र ग्राम के आदिनाथ चैत्यालय में मौतम चरित्र' बनाकर समाप्त किया है। कवि का समय 16 वो शताब्दी है। विमलदास यह अनन्तसेन के शिष्य और वीरग्राम के निवासी थे / तर्कशास्त्र के अच्छे विद्वान थे। इन्होंने प्लवंग संवत्सर की वैशाख शुक्ला अष्टमी बृहस्पतिवार के दिन सप्तभंग तरंगिणी नाम का ग्रंथ तंजोर नगर में पूर्ण किया था। यह ग्रंथ प्रकाशित हो गया है / इनका समय १७वीं शताब्दी अनुमानित किया गया है। सप्तभंग तरंगिणी ग्रंथ का बिस्तार 800 श्लोक प्रमाण हैं। उसमें समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द माणिक्यनन्दी और प्रभाचन्द्र प्रादि के ग्रन्थों के उद्धरण देकर सरल भाषा में स्यावाद के अस्ति-नास्ति मादि सप्तभंगों का विवेचन किया है, तथा अनेकान्तबाद में प्रतिपक्षियों द्वारा दिए गए संकर, व्यतिकर, विरोध और असंभव प्रादि दोषों का निरसन किया है। अन्त में लेखक ने बौद्ध, मीमांसक नैयायिक और सांख्यादि मतों में अप्रत्यक्ष रूप से सार पेक्षवादका अवलम्बन किया है, इसको स्पष्ट किया है। -- - - 1. संवत् सत्रास अर तेतीस, सावणबदि पंचमी भणि / पदवी भट्टारक अचल विराजित पण दान धण राजतंत्र॥ -मट्टारक पट्टावली 2. श्रीमरिगणाधिपो विजयतां श्रीभुषणाख्यो मुनिः // 266 पट्टे तदीये मुनि धर्मचन्द्रोभून्छो बलात्कार गरणे प्रधानः / श्री भूलसंधे प्रषिरापमानः श्री भारती गच्छ सुदीप्ति भानुः / / 267 राजधी रधुनाथ नामनुपती ग्रामे महाराष्ट्र के / नाभेयल्प निकेतनं शुभतर भाति प्रसौष्याकरम् / / तस्मिन् विकमया द्विवाद रस मुगाद्रींदु प्रमे वर्षकै / ज्येष्ठे मासे सितद्वितीये दिवसे कांसे हि शुकान्विते // 296 -गौतम चरित्र

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