Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 555
________________ १५वीं १६, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ५४३ 1 अच्छे विद्वान, तार्किक और वादी रूप में प्रसिद्ध थे । इनका उल्लेख शक सं० १४५२ (६० सन् १५३० ) में उत्कीर्ण हुए हुम्बनके नगर ताल्लुक लेख नं० ४६ में हुआ है । वर्द्धमान मुनीन्द्र ने, जो इन्हीं विद्यानन्द के शिष्य और बन्धु थे, उन्होंने शक सं० १४६४ (सन् १५४२ ) में समाप्त हुए दशभक्तयादि महाशास्त्र में उनका खूब स्तवन किया है। यह विद्यानन्द विजय नगर साम्राज्य के समकालीन हैं। इन्होंने मजराज, देवराज, कृष्णराज आदि अनेक राजाधों की सभा में जाकर शास्त्रार्थ किये और उनमें विजय प्राप्त कर यश और प्रतिष्ठा प्राप्त की । इन्होंने गेरुसोडये, कोयण और श्रवण बेलगोल आदि स्थानों में अनेक धार्मिक कार्य सम्पन्न किये। इनके देवेन्द्र कीति, वर्द्धमान मुनीन्द्र आदि अनेक शिष्य थे। इनमें वर्द्धमान मुनीन्द्र ने दशभक्तयादि महाशास्त्र और वरांग चरित की रचना की है'। स्वर्गीय आर० नरसिंहाचार्य का अनुमान है कि ये विद्यानन्द भल्लातकी पुर (गैरसोप्पे ) के निवासी थे । और इन्होंने 'काव्यसार' के अतिरिक्त एक और ग्रन्थ की रचना की थी। स्वर्गवास वाक्य से प्रकट है : क सं ० १४६३ (सन् १५४१ ) में हुआ था जैसा कि दशभक्तयादि महाशास्त्र के निम्न "शोक वेद खराब्धि चन्द्र कलिते संवत्सरे शायरे, शुद्ध श्रावणभाक्कृतान्त मेये घरणोतु मंत्र छौ । afeस्थे समुरौ जिनस्मरणतो वारीन्द्रवृन्दाचितः । विद्यानन्द सुनीश्वरः सगतवान् स्वर्गे चिदानन्दकः ॥ - प्रशस्तिसं० पृ० १२५ ब्रह्म कामराज मूलसंघ बलात्कार गण के भट्टारक पद्मनन्दी के अन्य में हुए हैं। यह भटटारक सकलभूषण के प्रशिष्य और नरेन्द्र कीर्ति के शिष्य ब्रह्म सहलाद वर्णी के शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक सकलकीर्ति के सादि पुराण को देखकर मेवाड में शक सं० १५५५ फाल्गुन महीने में (सन् १६३३ वि० सं० १६६१ ) में जय पुराण नाम के ग्रन्थ की रचना की है रचना साधारण है। कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है । ब्रह्म रायमल्ल नाम 'मा' और माता का नाम चम्पादेवी था । यह समाश्रित ग्रीवापुर के चन्द्रप्रभ जिनालय में वर्गीकर्मसी शुक्ला पंचमी बुद्धवार के दिन बनाई थी । भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी हिन्दी हनुमन्त कथा, प्रद्युम्नचरित, सुदर्शनसार, निर्दोषसप्तमी इनका जन्म हुंबड वंश में हुआ था। इनके पिता का जिन चरणों के उपासक थे। इन्होंने महासागर के तट भाग में के वचनों से 'भक्तामर स्तोत्र को वृत्ति सं० १६६७ में आषाढ ब्रह्म रायमल्ल मुनि अनन्तकीर्ति के शिष्य थे, जो गुजराती मिश्रित ७-८ रचनाएं उपलब्ध हुनेमीश्वररांस, व्रत कथा, श्रीपालरास और भविष्यदत्त कथा | इनका समय १७वीं शताब्दी है । १. देखो, अनेकान्त वर्ष २६ किरण २१० ८२ २. प्रशस्तिसंग्रह पृ० १४४ ३. राष्ट्रस्यैतत्पुराणं शक मनुजवते मेंदपाटस्य पुर्यां 1 पश्चात्संवत्सरस्य प्ररचितपटतः पंच पंचायतो हि । प्रभ्राभ्रक्षैक संवच्धरनिवियुज: ( १५५५) फाल्गुणे मामि पूर्णे | मुख्यायामौदा सुकविनगिनो लालजिष्णोदन वाक्यात् ॥ जेनवन्य प्र० पृ० ३६ ४. सप्तषष्ठ्यं किले वर्षे षोडणाख्ये हि संत्रते (१६६७) । आधा श्वेत पक्षस्य पंचम्यां दुधबारके 11 ग्रीवापुरे महासिंधो स्वभागं समाश्रिते । प्रस्तुंग दुर्गं संयुक्ते श्रीचन्द्रप्रभवति || वर्णिनः कर्मसीनाम्नो वचनात् मयकाऽरचि । भक्तामरस्य सद्वृत्तिः रत्यभल्लेन वणिनाः ॥१० जैन ग्रन्थ प्र० पु० १००

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