Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 543
________________ १५वी, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि "पुरे शेरपुर-शान्तिनाथचंत्यालये बरे। वसुखकायशीतांशु (१६०८) संवत्सरे तथा ॥ ज्येष्ठमासे सिते पक्षे दशम्यां शुक्रवासरे। प्रकारि ग्रन्थः पूर्णोऽयं नाम्ना दृष्टिप्रबोधकः ॥" कवि जिनदास ने इस ग्रन्थ को भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य मुनि ,धर्मचन्द्र और धर्मचन्द्र के शिष्य मुनि ललित कीर्ति के नाम किया है। कवि का समय १७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। . ब्रह्मकृष्ण या केशवसेनसूरि काष्ठासंघ के भद्वारक रत्नभूपण के प्रशिष्य और जयकीति के पट्टधर शिष्य थे। यह कवि कृष्णदास के नाम से प्रसिद्ध थे। वाग्वर (वागड) देश के दम्पति वीरिका और कान्तहर्ष के पुत्र और ब्रह्म मंगलदास के अग्रज (ज्येष्ठ भ्राता) थे । कर्णामत को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कवि का गंगासागर पर्यन्त, दक्षिण देश में, गुजरात में मालया और मेवाड़ में यश और प्रतिष्ठा थी। वे अपने समय के सुयोग्य विद्वान थे और १७वीं शताब्दी के अच्छे कवि थे। प्रापकी इस समय तीन रचनाए उपलब्ध हैं, मुनिसुवतपुराण-कर्णामृत पुराण और षोडशकारण व्रतोद्यापन। दुनिमुबह पुराण-इर: में पंनियों के २० वें तीर्थकर मुनिसुव्रत की जीवन गाथा अंकित की गई है। मंगल सहोदर कवि कृष्ण ने इस पुराण का निर्माण वि० सं० १६८१ के कार्तिक शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के अपराण्ह काल में कल्पबल्ली नगर में कर समाप्त किया है। इन्ष्टषचन्द्र मितेऽथ वर्षे (१६८१) श्री कातिकास्ये घवले च पक्षे । जो त्रयोदश्यपरान्हया मे कृष्णेन सोख्याय बिनिमितोऽयं ॥६ कवि ने अपने को लोहपत्तन का निवासी प्रौर हर्ष वणिक का पुत्र बतलाया है। और कल्पवल्ली नगर में ब्रह्मचारी कृष्ण ने ३०२५ पचों में इस ग्रन्थ की रचना की है। जैसा कि उसके पुष्पिका वाक्य से स्पष्ट है :-- इति श्री पुण्यचन्द्रोदये मुनिसुवत पुराणे धीपूरमल्लां के हर्ष धीरिका देहज घी मंगलदासापज ब्रह्मचारीपवर कृष्णदास विरचिते रामवेय शिवगमनं त्रयोविंशतितमः सर्गः समाप्तः । कर्णामृत पराण-इसमें कर्ण राजा के चरित का वर्णन किया गया है। यह दूसरी रचना है। कवि ने इसे वि० सं०१६८८ में मालव देश को भतिलक पुरी के पाश्वनाथ मन्दिर में माघ महीने में पूर्ण किया है। इस प्रन्य की रचना में ब्रह्मवर्धमान ने सहायता पहुंचायी थी, जो इनके शिष्य जान पड़ते हैं। षोडशकारण व्रतोद्यापन-इसमें षोडशकारणमत की विधि और उसके उद्यापन का वर्णन किया गया है। कवि केशवसेन या कृष्ण ने इसे वि० सं० १६६४ (सन १६३७) में मगशिर शुक्ला सप्तमी के दिन रामनगर में बना कर समाप्त किया है। वेवनंद रसचन्द्रवत्सरे (१६६४) मार्गमासि सितसप्तमी तिथौ। रामनामनगरे मया कृताचान्य-पुण्यनियहाथ सरिणा । १४ इति प्राचार्य केशवसेन विरचितं षोडशकारण प्रतोद्यापनं संपूर्णः इसके अतिरिक्त कवि की अन्य कृतियां भी अन्वेषणीय हैं । कवि का समय विक्रम की १७वीं शताब्दी है। १. लेलिहान-बमु-यह विथुप्रमे (१६८८) वत्सरे विविध भाव संयुतः । एष एवं रचितो हिताय' में ग्रन्थ आत्मन इहाखिलागिनाम् ।। जैन अन्य प्रश० मा० ११०५५

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