Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 547
________________ १५१ौं, १६वी, १७वीं और १५वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि चंत्र बदी अष्टमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में की है। अध्यात्म-कमल-मार्तण्ड-इसमें चार परिच्छेद हैं और २५० श्लोक हैं, रचना प्रौढ़ है, इसमें मोक्ष, मोक्ष मार्गका लक्षण देर नानाग, र लिप और अन्तिम चतुर्थ परिच्छेद में साततत्व नौ पदार्थों का वर्णन है। कवि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में चिदात्मभाव को नमस्कार किया है, और संसार ताप की शान्ति के लिए मोहनीय कर्म को नाश करने के लिए ग्रन्थ की रचना की है। समयसारकलश टोका-कवि ने प्राचार्य अमतचन्द्र द्वारा रचित समयसार को ग्रात्मस्याति टीका के संस्कृत पद्यों में उसके हार्द को अभिव्यक्त करने वाले जो कलश रूप पद्य दिये हैं, उन्हीं पद्यों को हृदयंगम कर उनकी खंडान्वयात्मक बालबोध टीका लिखी है। यह टीका जिनागम, गुरुउपदेश, मुक्ति और स्वानुभव प्रत्यक्ष को प्रमाण कर लिखी गई है। यही टोका की भाषा हुँडारी ब्रज-राजस्थानी मिश्रित है फिर भी गद्य काव्य सम्बन्यो शेलो पोर लालित्यादि विशेषतायों से प्रोत-प्रोत है। पढ़ते ही चित्त में पालाद उत्पन्न करती है। टीका में प्रत्येक श्लोक के पद-वाक्यों का शब्दश: अर्थ करते हए उसके मथितार्थ को 'भावार्थ इस्यो' वाक्य द्वारा प्रकट किया है। खंडान्वय में विशेषणों और तत्सम्वन्धी सन्दर्भो का स्पष्टीकरण बाद में किया जाता है। राजमल्ल की इस टीवा में उक्त पद्धति से ही विवेचन किया गया है। टोका में अनेक विशेषताएं पाई जाती है। जान पड़ता है कवि ने समय सारादि ग्रन्थों का खुब मनन किया था। उन्होंने उसका अनुभव होने पर ही इस टीका की रचना की है। टीका कब रची गई, इसका उल्लेख नहीं मिलता। टीका मनन करने योग्य है। कवि ने इस टीका का निर्माण संवत् १६८० से पूर्व १६४० में किया है क्योंकि १६८० में अरथमलढोर ने यह बनारसीदास को दी है। उसके प्रचार-प्रसार में समय लगा होगा। लाटी संहिता-यह प्राचार-शास्त्र का ग्रन्थ है। इसमें सात सर्म और पद्यों की संख्या १६०० के लगभग है। कवि ने इस रचना को अनुच्छिष्ट और नवीन बतलाया है । कवि ने यह समय अप्रवाल वंशावतंस मंगल गोत्री साह दुदा के पुत्र संघ के अधिपति 'फामन' नाम के श्रेष्ठी के लिए बनाया है। कवि फामन के वंश का विस्तत वर्णन करते हए फामन के पूर्वजों का मूल निवास स्थान 'डौकीन' नगरी चतलाया है। फामन ने वैराट नगर के 'ताल्हू' नाम के विद्वान की कृपा से धर्म-लाम किया था। जो भट्टारक हेमचन्द्र की प्राम्नाय के बालक थे। वैराट नाम का यह नगर वहो प्रसिद्ध नगर जान पड़ता है जो राजा विराट की राजधानी था, जो मत्स्य देश में स्थित था और जहां वनवास के समय पाण्डव लोग गुप्त रूप में रहे हैं। यह नगर जयपुर से लगभग ४० मील दूर है। कवि ने इस नगर को खूब प्रशंसा की है। वहां उस समय अकबर बादशाह का शासन था और नगर कोट-खाई से युक्त था । उसको पर्वतमाला में तांबे की कितनी ही खाने थी जिनसे तांबा निकाला जाता था। नगर में ऊँचे स्थान पर फामन के बड़े भाई न्योतो ने एक विशाल जिनमन्दिर का निर्माण कराया था जो एक कीति स्तम्भ हो या । यह दिगम्बर जैनमन्दिर बहत विशाल और अनेक सुन्दर चित्रों से अलंकृत था 1 यह मन्दिर पार्श्वनाथ के नाम से लोक १. देखो, जम्बू स्थामीचरित के अन्त की गद्य प्रशस्ति । २. अव्यात्मकमल मार्तण्ड के प्रारम्भ के चार पद्य । ३. सत्यं धर्म रसायनो यदि तदा मां प्रशिक्षयोप क्रमात सारोद्वारमिवाप्यनुग्रहतया स्वल्पाक्षरं सारवत् । आई चापि मृदूक्तिभिः स्फुटमनुच्छिष्ट नवीनं महनिर्माण परिक्षेहि संघ नृपतिर्भूयायवादीदिति ॥७६ लाटी संहिता ४. तवाद्यस्य वरो सुतो वरगुणो न्योता संपाधिपो, येनंतजिनमन्दिर स्फुटमिह प्रोत्तुंगमत्यद्भुतं । वैराटे नगरे निधाय विधिवस्यूजाश्च बह्वयः कृताः । प्रत्रामुत्र सुखप्रदः स्वयशसः स्तंभः समारोपितः ।।७२-लाटी संहिता

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