Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 527
________________ १५ व १६२ और भट्टारक और कवि XIX थी । इसने मांडवगढ़ को खूब मजबूत बनाकर उसे ही अपनी राजधानी बनाई थी। उसी के वंश में गयासुद्दीन, हुआ, जिसने मांडवगढ़ से मालवा का राज्य सं० १५२६ से १५५७ अर्थात् सन् १४६६ से १५०० ई० तक किया है'। इसके पुत्र का नाम नसीरशाह था, और इसके मन्त्री का नाम पुंजराज था जो वणिक और वैष्णव धर्मानुयायी था, संस्कृत भाषा का अच्छा विद्वान कवि और राजनीति में चतुर था। जैन धर्म तथा जैन विद्वानों से प्रेम रखता था । भट्टारक श्रुतकीति की तीन कृतियां पूर्ण और चोथी कृति अपूर्णरूप में उपलब्ध है। हरिवंशपुराण परमेष्ठी प्रकाशसार और जोगसार । चौथी कृति का नाम 'धर्म परीक्षा है, जो डा० हीरालाल जी एम० ए० डी० लिट् को प्राप्त हुई है । हरिवंशपुराण इसमें ४७ सन्धियां है जिनमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ का जीवन-परिचय अंकित किया गया है। प्रसंग वश उसमें श्रीकृष्ण आदि यदुवंशियों का संक्षिप्त जीवन चरित्र भी दिया हुआ है । इस ग्रन्थ की दो प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं। एक प्रति जैन सिद्धान्त भवन भारा में हैं, और दूसरी आमेर के भट्टारक महेन्द्र कीर्ति के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है, जो सम्वत् १६०७ की लिखी हुई है और जिसका रचना काल सम्बत् १५५२ हैं'। जो जेरहट नेमिनाथ मन्दिर में गयासुद्दीन के राज्य काल में रचा गया है। आरा की प्रति सं० १५५३ की लिखी हुई है और जिसमें ग्रन्थ के पूरा होने का निर्देश है, जो मण्डपाचल (मांडू ) दुर्ग के शासक गयासुद्दीन के राज्य काल में दमोवा देश के जेरहट नगर के महाखान और भोजखान के समय लिखी गई है' । ये महाखान भोजखान जेरहट नगर के सूबेदार जान पड़ते हैं। वर्तमान में जेरहट नाम का एक नगर दमोह के अन्तर्गत है । दमोह पहले जिला रह चुका है। बहुत सम्भव है कि दमोह उस समय मालव राज में शागिल हो । कवि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-नन्दिसंघ बलात्कारगण, बागेश्वरी (सरस्वती) गच्छ में, प्रभाचन्द्र, पद्मतन्दी शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पचनन्दि (द्वितीय), देवेन्द्र कीति (द्वितीय), त्रिभुवन कीर्ति, श्रुतकीर्ति परमेष्ठी प्रकाशसार इस ग्रन्थ की एकमात्र प्रति आमेर ज्ञानभण्डार में उपलब्ध हुई है जिसके श्रादि के दो पत्र और अन्त का एक पत्र नहीं है, पत्र संख्या २८८ है । ग्रन्थ में सात परिच्छेद या अध्याय हैं जिनकी श्लोक संख्या तीन हजार के प्रमाण को लिए हुए है । ग्रन्थ का प्रमुख विषय धर्मोपदेश है, इसमें सृष्टि और जीवादि तत्वों का सुन्दर विवेचन । कवि ने इस ग्रन्थ को भी उक्त मांडवगढ़ के जेरहट नगर के प्रसिद्ध नेमीकडवक और घता शैली में किया गया श्वर जिनालय में बनाया है। उस समय वहां गयासुद्दीन का राज्य था और उसका पुत्र नसीरशाह राज्य कार्य में मनु १. See Combridge Shorter History of india P.309 २. संवतु विक्कम सेण खरेसह सहसु पंचसय बावसेसई । मंडवगड वर मालवदेसह साहि गयासु पयाव असेस' । खयर जेरहट जिहिर जंगड, मिसाह जिरपबित्र बभंग । - जैन ग्रन्थ प्रश० मा० २५० ] ३. सं० १५५३ वर्षे तदार वदि द्वजसुदि ( द्वीतीय ) गुरी दिने अह मण्डपाचलगढ़ दुर्गे सुलतान गयासुद्दीन राज्ये प्रवर्तमाने श्री दमनादेवो महाखान भोजखान प्रवर्तमाने जेरहट स्थाने सोनी श्री ईसुर प्रवर्तमाने श्री मूलसंघ बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्री पद्मनन्दि देवतस्य शिष्य मण्डलाचार्य देविदकीतिदेव तच्छिष्य मण्डलाचार्य श्री त्रिभुवनकीर्ति देवान् तस्य शिष्य श्रुतकीर्ति हरिवंश पुराणे (से) परिपूर्ण कृतम् -आरा प्रति *}" 9

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