Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 530
________________ E था, प्रखण्ड प्रतापी, स्वजनों का विकासी घोर पुत्रां से अलंकृत था । यथा नृपति सबसि मान्यो यो ह्यखण्ड प्रतापः स्वजन जनविकासी सप्ततत्त्व विभासी । विमल गुणनिकेत म्रात् पुत्रो समेतः, स जयति शिवकामः साधु टोडहत्ति नामा ॥ कवि ने इस ग्रन्थ को पूरा कर जब साहू टोडरमल के हाथ में दिया तब उसने उसे अपने शिर पर रखकर afa माणिक्य राज का खूब आदर सत्कार किया। उसने कवि को सुन्दर वस्त्रों के अतिरिक्त कण कुण्डल और मुद्रिका यादि आभूषणों से भी अलंकृत किया था। उस समय गुणी जनों का आदर होता था । किन्तु बाज गुणी जनों का निरादर करने वाले तो बहुत हैं किन्तु गुण ग्राहक बहुत ही कम हैं; क्योंकि स्वार्थ तत्परता और ग्रहंकार ने उसका स्थान ले लिया है। अपने स्वार्थ तथा कार्य की पूर्ति न होने पर उनके प्रति श्रादर की भावना उत्पन्न हो जाती है । 'गुण न हिरानो किन्तु गुण ग्राहक हिरानों' की नीति के अनुसार खेद हैं कि आज टोडरमल जैसे गुण ग्राहक धर्मात्मा श्रावकों की संख्या विरल है - वे थोड़े हैं । कवि ने इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् १५७६ फाल्गुन शुक्ला ६वीं के. दिन पूर्ण की हैं। जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ कवि तेजपाल यह मूलसंघ के भट्टारक रत्नकीर्ति भुवनकीर्ति, धर्मकीर्ति और विशालकीर्ति की आम्नाय का विद्वान था । वासवपुर नामक गांव में वस्तावयह वंश में जाल्हड नाम के एक साहु थे। उनके पुत्र का नाम सूजउसाहु था। जो दयावंत और जिनधर्म में अनुरक्त रहता था। उसके चार पुत्र थे- रणमल, बल्लाल, ईसरु और पोल्हणु । ये चारों भाई खण्डेलवाल कुल के भूषण थे । प्रस्तुत रणमल साहु के पुत्र ताल्हूय साहु हुए। उनका पुत्र कवि तेजपाल था । तीन नावाचे गए हैं, जो अभी अप्रकाशित हैं। कवि का समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । कवि की तीन रचनाओं के नाम संभवणाह चरिउ, वरांग चरिउ, और पासणाह चरिउ 1 १ संभवणाह चरिउ इस ग्रन्थ में छह संधियां और १७० कड़वक हैं, जिनमें जैनियों के तीसरे तीर्थंकर संभवनाथ का जीवन परिचय दिया गया है। रचना संक्षिप्त और बाह्याडंबर से रहित है। इस खण्ड काव्य में तीर्थकर चरित को सीधे सादे शब्दों में व्यक्त किया गया है । प्रस्तुत ग्रंथ की रचना में प्रेरक अग्रवाल वंशी साहु थीरहा हैं जिनका गोत्र मित्तल था, और जो श्रीप्रभनगर के निवासी थे। श्रील्हा साहु लखमदेव के चतुर्थ पुत्र थे। इनकी माता का नाम महादेवी था और धर्मपत्नी का नाम कोल्हाही था, दूसरी भार्या का नाम मासाही था। जिससे त्रिभुवनपाल और रणमल नाम के दो पुत्र हुए थे । साहु यील्हा के पांच भाई और थे, जिनके नाम खिउसी, होल्लू दिवसी मल्लिदास, और कुन्यदास हैं । ये सभी भाई धर्मनिष्ठ, नीतिमान तथा जैनधर्म के उपासक थे । लखमदेव के पितामह साहु होलू ने जिनविम्ब प्रतिष्ठा कराई थी, उन्हीं के वंशज बील्हा के अनुरोध से कवि तेजपाल ने संभवनाथ चरिउ की रचना भादानक देश के श्रीप्रभनगर में दाउद शाह के राज्य काल में की थी । ग्रन्थ रचना का समय संभवतः १५०० के ग्रास-पास का होना चाहिये । २ वरांग चरिज दूसरी रचना 'वरांगचरिउ' है, जिसमें चार संधियां है। उनमें राजा वरांग का जीवन परिचय श्रंकित किया गया है । राजा दरांग यदुवंशी तीर्थंकर नेमिनाथ के शासन काल में हुए हैं। राजा वरांग का चरित बड़ा सुन्दर रहा १. "चिक्क मराय वयगय कालें, ले समुरणीस विसरभकाले । पण रहसइ गुष्णासि जरवाले, फागुण चंदिण परिख ससिवालें । मी सुखसुहवाले, सिरि पिरथी चन्दु पसायें सुंदरें ॥" - नागकुमार चरित प्र०

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