Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 539
________________ १५वीं, १६वी, १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य, भट्टारक और कवि विजयकीति के शिष्य थे। यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती और हिन्दी भाषा के विद्वान थे । कवि ने अपने को मध्यात्मतरंगिणी टीका प्रशस्ति में-'संसारभीताशय, भावाभाव विवेकवारिधि और स्याद्वाद विद्यानिधि' विशेषणों से युक्त प्रकट किया है । तथा 'अंग पण्णत्ति' में अपने को विद्य और 'उभयभाषापरिसेवी' सूचित किया है। तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में 'विद्य' और 'बादिपर्वतवचिणा' लिखा है। यह सागवाडा गद्दी के भदारक थे। पदावली से ज्ञात होता है कि वे तर्क, व्याकरण, साहित्य और अध्यात्मशास्त्र आदि विषयों के महान ज्ञाता थे। उन्होंने विभिन्न स्थानों की यात्रा की थी। उनके अनेक शिष्य थे। उन्होंने वादियों को परास्त किया था, उनका 'वादि पर्वतयधिणा' विशेषण इस बात का पोषक है। भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक प्रतिष्ठा समारोहों में भाग ही नहीं लिया किन्तु भट्टारक होने के नाते उनके प्रतिष्ठा कार्य को भी सम्पन्न किया। इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां उदयपुर, सागवाड़ा, डूंगरपुर और जयपुर आदि के मन्दिरों में विराजमान हैं। संवत् १६०७ में इन्हीं के उपदेश से पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति की स्थापना की गई थी। भट्टारक शुभचन्द्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिन्हें दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है। रचनाबों के नाम निम्न प्रकार हैं: अध्यात्मतरंगिणी (समयसारकलश टीका) जीवंधरचरित, चन्दनाचरित, अंगपण्णत्ती, पार्श्वनाथ पंजिका, करकडचरित, संशयवदन विदारण, स्वरूप सम्बोधनवृत्ति, प्राकृत व्याकरण, श्रेणिकचरित, स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा टीका, पाण्डव पुराण, सप्ततत्त्व निरूपण, अपशब्द खण्डन, स्तोत्र (तक ग्रन्य) नन्दीश्वर कथा, कमंदहन विधि, चिन्तामणि पूजा, तेरह द्वीप पूजा, पंचकल्याणक पूजा, गणधर वलय पूजा, पल्योपमउद्यापन विधि, साधंद्वयद्वाप पूजा, सिद्धचक्र पूजा, पुष्पांजलि व्रत पूजा, सरस्वती पूजा, चारित शुद्धि विधान, सर्वतोभद्र विधान प्रादि। इन रचनामों में से यहाँ कुछ रचनामों का परिचय दिया जाता है। रचना-परिचय पध्यात्मप्तरंगिणी टीका-यह प्राचार्य अमतचन्द्र के समयसार कलशों (नाटक समयसार) को टीका है जिसे भट्टारक शुभचन्द्र ने सं० १५७३ में बनाकर समाप्त की थी। टीका में कलश के पद्यों के अर्थ का उद्घाटन किया है। टीका विशद है और पद्यों के अन्तर्भाव को खोलने का प्रयत्न किया गया है। कहीं-कहीं टीकाकार ने पद्यों के अर्थ करने में चमत्कार दिखलाया है । भट्टारक शुभचन्द्र की यही टीका सबसे पहली रचना जान पड़ती है । टीका प्रकाशित हो चुकी है। जीवंघर चरित-इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले जीवंधर कमार का जो राजा सत्यंघर के पुत्र थे, जीवन परिचय अंकित किया गया है। जीवघर ने अपने पिता के राज्य को पुनः प्राप्त किया, भोग भोगे, किन्तु अन्त में अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान महावीर से दीक्षा लेकर पात्म-साधना की। कठोर तपश्चरण कर कर्म १. शिष्यस्तस्य विशिष्ट शास्त्रविशदः संसारभीताशयो। भावाभावविवेक वारिधितरस्पाद्वादविद्यानिषि :॥ विवक वाराघसरस्याद्वादविद्यानिषि :॥ --प्रध्यात्मतरंगिणी टीका प्र. २. "तप्पय सेवरणसत्तो तेवेज्जो ग्य भास परिवई।" -अंगपणत्ती प्र. ३. सूरिश्रीशुभचन्द्रण वादिपर्वतवचिणा। विचनानुप्रेक्षाया वृत्तिविरचिता नरा॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा टी०प्र० ४: संवत् १६०७ वर्षे बैशाखचदी २ गुरु श्री मूलसंषे म..श्री शुभचन्द्र गुरूपदेशात् सबढशंखेश्वरा गोत्रे सा० जिना । भट्टारक सम्प्रदाय प्र० १४५ ५. विक्रम वरभूपालापंचविद्यते स्त्रिसप्तति थरिके। वर्षेप्याविवन्माने शुक्ल पक्षेष पंचमोदिवसे ॥ भ्याट्री.प्र.

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