Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 519
________________ १५वौं, १६वीं, १७वों और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि जाती हैं। यह सं० १५०७ में भट्टारक पद पर प्रतिष्टित हुए थे और पट्टावली के अनुसार उस पर ६२ वर्ष तक अवस्थित होना लिखा है । इनके अनेक शिष्य थे, उनमें पंडित मेधावी और कवि दामोदर आदि हैं. । कवि दामोदर की इस समय दो कृतियां प्राप्त हैं-सिरिपाल चरिउ और चन्दप्पहचरिउ। इन ग्रन्थों की प्रशस्ति में कवि ने अपना कोई परिचय अंकित नहीं किया। सिरिपाल चरिउ इस ग्रन्य में चार संधिया हैं। जिनमें सिद्धचक्र के माहात्म्य का उल्लेख करते हुए उसका फल प्राप्त करने वाले राजा श्रीपाल और मैनासुन्दरी का जीवन परिचय दिशा हमा है। सिद्धचक्रवत के माहात्म्य से श्रीपाल का और उनके सात सौ साथियों का कुष्ठ रोग दूर हुआ था । ग्रन्थ में रचना समय नहीं दिया, इससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। चंदापह चरिउ यह ग्रंथ नागौर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, पर ग्रन्थ देखने को अभी तक प्राप्त नहीं हो सका. इस कारण यहां उसका परिचय नहीं दिया जा सका 1 ग्रन्थ में आठवें तीर्थकर की जीवन गाथा अंकित की गई है। कवि का समय विक्रम की १६वीं शताब्दी है 1 कवि की अन्य क्या कृतियां है, यह अन्वेषणीय है। नागचन्द्र यह मूलसंध देशीयगण पुस्तक गच्छ-पनसोगे के जो तूलु या तौलववदेश में था, भट्टारक ललितकीति के अग्र शिप्य और देवचन्द' मुनीन्द्र के शिष्य थे। कर्णाटक के विप्रकुल में उत्पन्न हुए थे। इनका गोत्र श्रीवत्स था, पार्श्वनाथ और गुमटाम्बा के पुत्र थे। इन्हों ने धनंजय कविकृत विपापहारस्तोत्र की संस्कृत टीका की प्रशस्ति में अपने को प्रवादिगज केशरी और नागचन्द्र सुरि प्रकट किया है। विषापहारस्तोत्र टीका बागड देश के मण्डलाचार्य ज्ञानभूषण के अनुरोध से बनाई है __ "बागड देश मंडलाचार्य ज्ञानभूषण देवमुहहरुपरुतः कादिराजसमें प्रसिद्धः प्रवादिगज केशरी विश्व कविमद विवारी सद्दर्शन ज्ञानधारी नागचन्द्रसूरि धनंजयसरिभिहिमार्थ व्यक्तीकत्त शक्नुवन्नपि गुरुवचन मलंघनीयमिति न्यायेन तवभिप्राय विवरीत प्रसिजानीते।" (विपा० स्तोत्र पु० वाक्य) यह जैन धर्मानुयायी थे। इन्होंने ललितकीति के शिष्य देवचन्द्र मुनीन्द्र का भी उल्लेख किया है : इय महन्मत क्षीर पारावार पार्वण शशांकस्य मूलसंघ देशीय गण पुस्तक गच्छ यनशोकावलो तिलकालं कारस्य तौलववेश पवित्रीकरणप्रबल श्रीललितकीति भट्टारकस्याग्रशिध्य गुण वहण पोषण सफल शास्वाध्ययन प्रतिष्ठा यात्राधुपदेशानन धर्मप्रभावना धुरीण देवचन्द्र मुनीन्त्र चरण नख किरण चंद्रिका चकोरायमाणेन कर्णाट विप्रकलोतंस धीवत्सगोत्र पवित्र पार्श्वनाथ गुमटान्वातनुजेन प्रयादिगजकेशरिणा नामचन्द्रसूरिणा विषापहार स्तोत्रस्य कृता व्याख्या कल्पांस तत्व बोधायेति भद्र।" विषापहार स्तोत्र की यह टीका उपलब्ध टीकानों में सबसे अच्छी है। स्तोत्र के प्रत्येक पद्य का अर्थ स्पष्ट किया है। कहा जाता है कि इन्होंने पंच स्तोत्रों पर टीका लिखी है। किन्तु वह मुझे उपलब्ध नहीं हुई। हां १. भट्टारक ललित कीर्ति काव्य न्याय व्याकरणादि शास्त्रों के अच्छे विद्वान एवं प्रभावशाली भट्टारक थे। उनके शिष्य थे कल्याण कीति, देवकीति और नागचन्द्र आदि। इन्होंने कारकल में भैररस राजा वीरपाण्ड्य द्वारा निर्मापित ४१ फुट ५ इंच उतुंग बाहुबली की विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा शक सं० १३५३ (वि० सं० १४८८) में स्थिर लग्न में कराई थी। इसके बाद कारकल की इस भट्टारकीय गद्दी पर जो भी भट्टारक प्रतिष्ठित होता रहा वह ललित कीर्ति नाम से उल्लेखित किया जाता है।

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