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जैन धर्म का प्राचीन इतिहाम-भागर नानी ऐसा मानता है कि एक उपयोग मात्र शाा शेम रूप हूँ। इनके अतिरिक्त अन्य परमाणु मात्र भी मेरा नही है।
दूसरे कत कर्माधिकार में बतलाया है कि यद्यपि जीव और अजीव दोनों द्रव्य स्वतन्त्र हैं। तो भी जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल कम वर्गणाएं स्वयं कर्म रूप परिणत हो जाती हैं। और पुद्गल कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव भी परिणमन करता है। तो भी जीव और पुद्गल का परस्पर में कर्ता कमपना नहीं है। कारण कि जीव पद्गल कर्म के किसी गुण का उत्पादक नहीं है, और न पुद्गल जीब के किसी गृण का उत्पादक है। केवल अन्योन्य निमित्त से दोनों का परिणमन होता है। अतएव जीव सदा स्वकीय भावों का कर्ता है। बह कर्मकृत भावों का कर्ता नहीं है। किन्तु निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण आवहारनय से जीव का पुद्गल कर्मों का, और पुदगल को जीद के भावों का कर्ता कहा जाता है। परन्तु निश्चयनय से जीव न पुद्गल कर्मों का कर्ता है और न भोक्ता है। अब रह जाते हैं मिथ्यात्य, प्रज्ञान, प्रविरति, योग, मोह और क्रोधादि उपाधि भाव, सो इन्हें कन्दकन्दाचार्य ने जीव-मजीव रूप दो प्रकार का बतलाया है।
आत्मा जब प्रज्ञानादि रूप परिणमन करता है, तब राग-द्वेष रूप भावों को करता है और उन भावों का स्वयं कर्ता होता है। पर मज्ञानादि रूप भाव पुद्गल कर्मों के निमित्त के बिना नहीं होते। किन्तु अज्ञानी जीव परके और आत्मा के भेद को न जानता हुमा क्रोध को अपना मानता है, इसी से वह अज्ञानी अपने चैतन्य विकार रूप परिणाम का कर्ता होता है। और क्रोधादि उसके कर्म होते हैं। किन्तु जो जीव इस भेद को न जान कर कोधादि में प्रात्मभाव नहीं करता, वह पर द्रव्य का कर्ता भी नहीं होता।
तीसरे पुण्य-पापाधिकार में पाप की तरह पुण्य को भी हेय बतलाते हए लिखा है कि---सोने की बेडी भी बांधती है और लोहे की बेज़ी भी बांधती है। प्रतः शुभ-अशुभ रूप दोनों ही कर्म बन्धक है। इसलिये उनका परित्याग करना ही श्रेयस्कर है। जिस तरह कोई पुरुष खोटी पादत वाले मनुष्य को जानकर उसके साथ संसर्ग और राग करना छोड़ देता है। उसी तरह अपने स्वभाव में लीन पुरुष कर्म प्रकृतियों के शील स्वभाव को कुत्सित जानकर उनका संसर्ग छोड़ देता है . उनसे दूर रहने लगता है। रागी जीव कर्म बांधता है और विरागी कर्मों से छुट जाता है । अत: शुभ-अशुभ कर्म में राग मत करो-राग का परित्याग करना आवश्यक है। - चतुर्थ अधिकार में बतलाया है कि जीव के राग-द्वेष और मोहरूप भाव, मानव भाव हैं। उनका निमित्त पाकर पौदगलिक कर्माण बर्गणामों का जीव में पारद होता है। रागादि प्रज्ञानमय परिणाम हैं। प्रज्ञानमय परिणाम अज्ञानी के होते हैं। और ज्ञानी के ज्ञानमय परिणाम होते हैं। ज्ञानमय परिणाम होने से अज्ञानमय परिणाम रुक जाते हैं । इसलिये ज्ञानी जीव के कर्मों का मानव नहीं होता। प्रतएव बंध भी नहीं होता।
पांचवे अधिकार में संवर सत्व का प्रतिपादन है। रागादि भावों के निरोध का नाम संबर है। रागादि भावों का निरोध हो जाने पर कर्मों का पाना रुक जाता है। संवर का मूल कारण भेद विज्ञान है। उपयोग ज्ञान स्वरूप है, और क्रोधादि भाव जड़ है। इस कारण उपयोग में क्रोधादिभाव और कर्म नोकर्म नहीं हैं । और न क्रोधादि भावों में तथा कर्म नोकर्म में उपयोग है। इस तरह इनमें परमार्थ से अत्यन्त भेद है । इस भेद तथा रहस्य को समझना ही भेद विज्ञान है । भेद विज्ञान से ही शुद्ध प्रात्मा की उपलब्धि होती है । और शुद्धात्मा की प्राप्ति से ही मिथ्यात्वादि प्रध्यवसानों का प्रभाव होता है। और प्रध्यवसानों का प्रभाव होने से प्रास्त्रव का निरोध होता है। प्रास्रव के निरोध से कर्मों का निरोध होता है। पौर कर्म के अभाव में नो कर्मों का निरोध होता है और नो कर्मों के निरोध से संसार का निरोष हो जाता है।
छठे निर्जरा अधिकार में बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि जीव, इंद्रियों के द्वारा चेतन और अचेतन द्रव्यों का उपभोग करता है वह निर्जरा का कारण है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव के ज्ञान और वैराग्य की अद्भुत सामर्थ्य होती
१. रत्तो बंधादि कम्मं मुपदि जीवो विरागसंपण्यो ।
ऐसो जिणोक्देसो, तम्हा कम्मेसु मा रज ।।१५०