Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 474
________________ ૪૬૨ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रइधु कवि ही प्रतीत होते हैं, सिंहसेन नहीं । हाँ, यह हो सकता है कि सिंहसेनाचार्य का कोई दूसरा ही ग्रन्थ रहा हो, पर उक्त ग्रन्थ सिहसेनादुरिय का नहीं किन्तु रघु कविकृत ही है। सम्मइजिनचरिउ की प्रशस्ति में रइधू ने सिंहसेन नाम के एक मुनि का उल्लेख भी किया है और उन्हें गुरु भी बसलाया है और उन्हीं के वचन से सम्मइजिनचरिउ की रचना की गई है । धत्ता-- "तं णिसणि वि गरुणा गच्छह गरुणाई सिंहसेण मुणे। पुरुसंटिउ पंडिउ सील प्रखंडिउ भणिउ तेण तं तम्मि खणि ।।५।। गुरु परम्परा कविवर ने अपने ग्रन्थों में अपने गरु का कोई परिचय नहीं दिया है और न उनका स्मरण ही किया है । हां, उनके ग्रन्थों में तात्कालिक कुछ भट्टारकों के नाम अवश्य पाये जाते हैं जिनका उन्होंने आदर के साथ उल्लेख किया है। पद्मपुराण की प्राच प्रशस्ति के चतुर्थ कडवक को निम्न पंक्तियों में, उस्त ग्रन्थ के निर्माण में प्रेरक साह हरशी द्वारा जो वाक्य कवि रइधु के प्रति कहे गए हैं उनमें रइधू को 'श्रीपाल ब्रह्म आचार्य के शिष्य रूप से सम्बोधित किया गया है। साथ ही साहू सोडल के निमित्त नमिपुराण के रचे जाने और अपने लिए रामचरित के कहने की प्रेरणा भी की गई है जिससे स्पष्ट मालूम होता है कि रइधू के मुरु ब्रह्म श्रीपाल थे। वे वाक्य इस प्रकार हैं: भो रइधू पंडिउ गुण णिहाणु, पोमावइ घर संसह पहाणु। सिरिपाल अहा प्राय रिय सीस, मह वयणु सुणहि भो घुह गिरीस ।। सोढल णिमित्त गेमिहु पुराण, विरयउ जह कइजणविहिय-माण। तं रामचरित्तु वि मह भणेहि, लक्खण समेत इय मणि मुणेहि ॥ प्रस्तुत ब्रह्म थोपाल कवि रइ के गुरु जान पड़ते हैं, जो भद्रारक यश:कोति के शिष्य थे। 'सम्मइ-जिनचरित्र' की अन्तिम प्रशस्ति में मुनि यश:कीति के तीन शिष्यों का उल्लेख किया गया है। खेमचन्द, हरिषेण मौर ब्रह्म पाल (ब्रह्म श्रीपाल)। उनमें उल्लिखित मुनि ब्रह्मपाल ही ब्रह्म श्रीपाल जान पड़ते हैं । अब तक सभी विद्वानों की यह मान्यता थी कि कविवर रइधू भट्टारक यशःकीर्ति के शिष्य थे कित इस समूल्लेख पर से वे यश:कीर्ति के शिष्य न होकर प्रशिष्य जान पड़ते हैं। कविवर ने अपने ग्रंथों में भट्टारक यशःकीति का खुला यशोगान किया है और मेघेश्वर चरित की प्रशस्ति में तो उन्होंने भट्टारक यशःकीति के प्रसाद से विचक्षण होने का भी उल्लेख किया है। सम्मत गुण-णिहाण नथ में मूनि यश कौति को तपस्वी, भव्यरूपी कमलों को संबोधन करने वाला सूर्य, और प्रवचन का व्याख्याता भी बतलाया है और उन्हीं के प्रसाद से अपने को बाध्य करने वाला और पापमल का नाशक बतलाया है। तह पुणु सुतव तावतवियंगो, भन्ब-कमल-संबोह-पयंगो। णिच्चोभासिय पचयण संगो, वंदिय सिरि जसकित्ति प्रसंगो। तासु पसाए कम्यु पयासमि, ग्रासि विहिज कलि-मलु-णिण्णासमि । इसके सिवाय यशोधर चरित्र में भट्टारक कमलकीति का भी गुरु नाम से स्मरण किया है। निवास स्थान और समकालीन राजा सविवर रइधू कहां के निवासी थे और वह स्थान कहां है और उन्होंने ग्रन्थ रचना का यह महत्वपूर्ण कार्य किन राजामों के राज्यकाल में किया है यह बातें अवश्य विचारणीय है । यद्यपि कवि ने अपनी जन्मभूमि प्रादि का कोई परिचय नहीं दिया, जिससे उस सम्बन्ध में विचार किया जाता, फिर भी उनके निवास स्थान आदि के १. मुण जसकित्ति हु सिस्स गुणायरु, खेमचन्दु हरिसेणू तथायरु । मुणि तं पाल्हु बभुए णंदा, तिणि वि पाव भास णिकंबहु । --सम्मइ जिनवरि उ प्रवास्ति

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