Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 512
________________ ५० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ सिद्धचक्र कथा इसमें सिद्धचक्र व्रत के माहात्म्य का वर्णन है जिसे उन्होंने सम्यग्दृष्टि श्रावक जालाक के लिए कल्याणकारी कथा का चित्रण किया था । इस कथा की अन्तिम प्रशस्ति के निम्न वाक्य में श्री पद्मनन्दी मुनिराज पट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः' श्री सिद्धचक्रस्य कथावतारं चकार भव्यां बुजभानुमाली ॥ १॥ भ० शुभचन्द्र का समय विक्रम की १५वीं शताब्दी का तृतीय चतुर्थचरण है । रत्नको ति यह बलात्कारगण के विद्वान थे । यह भावकीति और अनंतकीर्ति के शिष्य थे। इनकी एकमात्र कृति पुष्पांजलि व्रतकथा है जो अपभ्रंश भाषा की रचना है। कथा में कवि ने रचनाकाल और रचनास्थल का कोई उल्लेख नहीं किया। इसका कारण रचना काल का निश्चय करना कठिन है । संभव है १५वीं शताब्दी की रचना हो । पंडित योगदेव यह कनारा जिले के कुम्भनगर के निवासी थे। पंडित योगदेव राजा भुजवली भीमदेव के द्वारा राज्यमान्य थे। वहां की राज्यसभा में सम्मान प्राप्त था । इनकी एक कृति तत्त्वार्थ सूत्र की टोका 'सुखबोधवृत्ति' है । ग्रन्थ में गुरु परम्परा और रचनाकाल का कोई उल्लेख नहीं है । इस कारण इनका समय निश्चित करना कठिन है। अपभ्रंश भाषा की 'सुव्रतानुप्रेक्षा' नाम की २० कडवक की रचना है जिसमें मुनि सुव्रत की बारह भावना का वर्णन है । जिसे उन्होंने कुंभनगर में रहते हुए विश्वसेन मुनि के चरण कमलों की भक्ति से रचा है । इस ग्रन्थ की यह प्रतिलिपि सं० १५५५ बैशाख बंदि १३ के दिन मंसूर के पद्यप्रभ चैत्यालय में की गई है। इससे इतना तो सुनिश्चित है कि पंडित योगदेव उससे पहले हुए हैं। संभवतः यह १५वीं शताब्दी के विद्वान हैं। कवि जल्हिग इन्होंने अपना कोई परिचय, गुरुपरम्परा और 'रचना' काल नहीं दिया जिससे उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इनकी एकमात्र कृति, अनुपेहारास' है जिसमें श्रनित्य, अशरण संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, श्रास्रव, संवर, निर्जरा लोक बोधि दुर्लभ और धर्म । इन बारह भावनाओं का स्वरूप दिखलाते हुए उनके बार-बार चितवन करने की प्रेरणा की है। ये भावनाएं देह-भोगों की प्राशक्ति को दूर करती हुई उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करती हैं मोर आत्मस्वरूप की ओर श्राकृष्ट करती हैं। इसीलिये इन्हें माता के समान हितकारी बतलाया है । कषि जल्हिग कब हुए, यह रचना पर से ज्ञात नहीं होता। संभवतः इनका समय विक्रम की १८वी या १५वीं शताब्दी है । कवि कहता है कि जो इनकी भावना भाता है वह पाप-गारा को दूर करता हुआ परम सुख प्राप्त करता है। साथ में कवि कहता है कि मैंने निज शक्ति से इसकी रचना की है, उसमें जो कुछ होन या अधिक कहा गया हो, या पद अक्षर मात्रा से हीन हो, तो उसका विगत मल मुनीश्वर शोधन करें I नेमचन्द यह माथुर संघ के विद्वान थे। इनकी रची हुई 'रविवयका' (रवि व्रत कथा ) है जिसमें रविवार के व्रत की विधि और उसके फल प्राप्त करने वाले की कथा दी गई है। रचना में गुरुपरम्परा और रचना काल का कोई उल्लेख नहीं है । इससे निश्चित समय बतलाना शक्य नहीं है। कथा की भाषा साहित्यादि पर से १५वीं शताब्दी की रचना जान पड़ती है । अन्य साधन सामग्री के अन्वेषण से समयादिका निश्चय हो सकेगा । I १. सम्यग्दृष्टि विशुद्धात्मा जिनधर्म व वत्सलः । जालाकः कारयामास कथां कल्याण कारिणि ॥२

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