Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 491
________________ १४वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि रचनाएँ पद्मनन्दि श्रावका नन्दी की अनेक रचनाएँ हैं। जिनमें देवशास्त्र गुरु-पूजन संस्कृत, सिद्धपूजा संस्कृत, चारसारोद्वार, वर्धमानकाव्य, जोरापल्लि पार्श्वनाथ स्तोत्र प्रार भावनाचतुविशति । इनके प्रतिरिक्त वीतराग स्तोत्र, शान्तिनाथ स्तोत्र भी पद्मनन्दी कृत हैं, पर दोनों स्तोत्रों, देव-शास्त्र गुरु पूजा तथा सिद्धपूजा में पद्मनन्दि का नामोल्लेख तो मिलता है, परन्तु उसमें भ० प्रभाचन्द का कोई उल्लेख नहीं मिलता। जब कि अन्य रचनाम्रों में प्रभाचन्द का स्पष्ट उल्लेख है, इसलिये उन रचनाओं को बिना किसी ठोस साधार के प्रस्तुत पद्मनन्दों को ही रचनाएं. नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि वे भी इन्ही की कृति रहीं हों । श्रावकाचारसारोवार संस्कृत भाषा का पद्य बद्ध ग्रन्थ है, उसमें तीन परिच्छेद है जिनमें श्रावक धर्म का अच्छा विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ के निर्माण में लम्बकंचुक कुलान्वयी (लमेचूवंशज) साहू वासाधर प्रेरक हैं।" प्रशस्ति में उनके पितामह का भी नामोल्लेख किया है जिन्होंने 'सुपकारसार' नामक ग्रंथ को रचना की थी। यह ग्रन्थ ग्रभी अनुपलब्ध है । विद्वानों को उसका अन्वेषण करना चाहिए। इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में कर्ता ने साहू वासाघर के परिवार का अच्छा परिचय कराया है। और बतलाया है कि गोकर्ण के पुत्र सोमदेव हुए, जो चन्द्रवाड के राजा अभयवन्द्र और जयचन्द्र के समय प्रधान मन्त्री थे । सोमदेव की पत्नी का नाम प्रेमसिरि था, उससे सात पुत्र उत्पन्न हुए थे । वासाधर, हरिराज, प्रहलाद, महाराज, भवराज रतनाख्य और सतनाख्य । इनमें से ज्येष्ठ पुत्र साधर सबसे अधिक बुद्धिमान, धर्मात्मा शीर कर्तव्यपरायण था। इनकी प्रेरणा और श्राग्रह से हो मुनि पद्मनन्दी ने उक्त श्रवाकाचार की रचना की थी। साहू वासावर ने चन्द्रवाड में एक जिनमन्दिर बनवाया था और उनको प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी। कवि धनपाल के शब्दों में वासाधर सम्यग्दृष्टि, जिनचरणों का भक्त जैनधर्म के पालन में तत्पर, दयालु, बहुलांक मित्र मिध्यात्व रहित और विशुद्ध चित्तवाला था। भ० प्रभाचन्द्र के शिष्य घनपाल ने भी सं० १४५४ में चंद्रवाड नगर में उक्त वासाधर की प्रेरणा से अपभ्रंश भाषा में बाहुबलोंचरित की रचना की थी । दूसरी कृति वर्धमान काव्य या जिनरात्रि कथा है, जिसके प्रथम सर्ग में ३५६ और दूसरे सर्ग में २०५ श्लोक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का चरित अंकित किया गया है, किन्तु ग्रन्थ में रचनाकाल नहीं दिया जिससे उसका निश्चित समय बतलाना कठिन है। इस ग्रन्थ की एक प्रति जयपुर के पार्श्वनाथ दि० जैन मंदिर के शास्त्र भंडार में अवस्थित है जिसका लिपिकाल सं० १५१८ है और दूसरी प्रति सं० १५२२ को लिखी हुई गोपीपुरा सूरत के शास्त्र भंडार में सुरक्षित है। इनके अतिरिक्त 'अनंतव्रत कथा' भी भ० प्रभाचंद्र के शिष्य नन्दो को बनाई उपलब्ध है। जिसमें ८५ श्लोक हैं । पद्मनन्द ने अनेक देशों, ग्रामों, नगरों आदि में विहार कर जन कल्याण का कार्य किया है, लोकोपयोगी साहित्य का निर्माण तथा उपदेशों द्वारा सम्मार्ग दिखलाया है। इनके शिष्य-प्रशिष्यों से जैनधर्म और संस्कृति की महती सेवा हुई है। वर्षो तक साहित्य का निर्माण, शास्त्र भंडारों का संकलन और प्रतिष्ठादिकार्यों द्वारा जैन संस्कृति के प्रचार में बल मिला है। इसी तरह के अन्य अनेक संत हैं, जिनका परिचय भी जनसाधारण तक नहीं पहुंचा है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर पद्मनन्दी का परिचय दिया गया है चूंकि पद्मनन्दी मूल संघ के विद्वान थे, वे farara में रहते थे और अपने को मुनि कहते थे और वे यथाविष यथाशक्य निर्दोष आचार विधि का पालन कर जीवन यापन करते थे । १. श्री के चुकुलपदम विकासभानुः सोमात्मजो दुरितदार जयकृशानुः । धर्म परो भुवि भव्यबन्धु वसाबरो विजयते गुणरत्न सिन्धुः ।। २. जियाह चरण भसो त्रिणषम्मपरो दयालोए । सिरि सोम ४७६ दउ बासरी शिवं । सम्मत जुज्ञो णिशयभत्तो दयालुरतो बहुलोय मित्तो । मिच्छतवतो सुरिलो वासावरी दत्त पुष्णचिसो ॥ बाहुबलीवरित संधि ४ - बाहुबली चरित संधि ३

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