Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 501
________________ १५वीं १६वीं १७वी और १८वीं शताब्दी के पाचार्य, भट्टारक और कवि ४८१ किया और भट्टारक रत्नकीर्ति के पट्ट पर उन्हें प्रतिष्ठित किया । भट्टारक प्रभाचन्द्र ने मुहम्मदशाह तुगलक के मन को अनुरंजित किया था और विद्या द्वारा वादियों का मनोरष भग्न किया था । मुहम्मदशाह ने वि० सं० १३८१ से १४०८ तक राज्य किया है। भट्टारक प्रभाचन्द्र का भ रत्नकी तिके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समर्थन भगवती आराधना की पंजिका टीका की उस लेखक प्रशिस्ति से भी होता है जिसे सं०१४१६ में इन्हीं प्रभाचन्द्र के शिष्य ब्रह्मनाथ राम ने अपने पटने के लिए दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुगलक के शासन काल में लिखवाया था। उसमें भ० रत्नकीति के पटट : तिष्ठित होनेरु सरस्ट पोल है। पोरणमाह तुगलक ने सं० १४०८ से १४४५ तक राज्य किया है। इससे स्पष्ट है कि भ. प्रभाचन्द्र सं० १४१६ से कुछ समय पूर्व भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित हुए थे। कविवर धनपाल गुरु प्राज्ञा से सौरिपुरतीर्थ के प्रसिद्ध भगवान नेमिनाथ जिन की वन्दना करने के लिये गए थे। मार्ग में इन्होंने चन्द्रबाड नाम का नगर देखा, जो जन धन से परिपूर्ण और उत्तुंग जिनालयों से विभूषित था वहां साठ वासाघर का बनवाया हुमा जिनालय भी देखा और वहां के श्री अरहनाथ जिनकी वदना कर अपनी गर्दी तथा निदा की और अपने जन्म-जरा और मरण का नाश होने की कामना व्यक्त की। इस नगर में कितने ही ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिन्होंने जैनधर्म का अनुष्ठान करते हुए वहाँ के राज्य मंत्री रहकर प्रजा का पालन किया है। कवि का समय १५ वीं शताब्दी का मध्यकाल है। क्योंकि कवि ने अपना बाहुबली चरित सं० १४५४ में पूर्ण किया है। कवि की एक मात्र रचना 'बाहुबली चरित' है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अठारह सन्धियां तथा ४७५ कडवक हैं। कवि कथा सम्बन्ध के बाद सज्जन दुर्जम का स्मरण करता हुआ कहता है कि 'नीम को यदि दूध से सिंचन किया जाय तो भी वह अपनो कटुता का परित्याग नहीं करती। ईख को यदि शस्त्र से काटा जाय तो भी वह अपनी मधुरता नहीं छोड़ती। उसी तरह सज्जन-दुर्जन भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। सूर्य तपता है और चन्द्रमा शीतलता प्रदान करता है। ग्रन्थ में प्रादि ब्रह्मा ऋषभदेव के पुत्र बाहुबली का, जो सम्राट् भरत के कनिष्ठ भ्राता और प्रथम कामदेव थे, चरित दिया हुआ है। बाहुबली का शरीर जहाँ उन्नत और सुन्दर था वहाँ यह बल पौरुष से भी सम्पन्न था। वे इन्द्रिय विजयी और उग्र तपस्वी थे। वे स्वाभिमान पूर्वक जीना जानते थे, परन्तु पराधीन जीवन को मत्य से कम नहीं मानते थे। उन्होंने भरत सम्राट से जल-मल्ल और दृष्टि युद्ध में विजय प्राप्त की थी, परिणाम स्वरूप भाई का मन प्रपमान से विक्षब्ध हो गया और बदला लेने की भावना से उन्होंने अपने भाई पर चक्र चलाया, किन्तु देवोपुनीत प्रस्त्र 'वंश-घात' नहीं करते । इससे चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापिस लौट गया-वह उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा सका । बाहुबली ने रणभूमि में भाई को कंधे पर से धीरे से नीचे उतारा और विजयी होने पर भी उन्हें संसार-दशा का बड़ा विचित्र अनुभवं हुआ। १. तहि भवहि सुमहोच्छन विहिप सिरिरयणकित्ति प? णिहियउ । महमद सहि मणुर जिपउ, विज नहिं वाइयमणु भजियउ।" -बाहुबलिचरिउ प्रशस्ति २. संवत् १४१६ वर्षे चत्र सुदि पञ्चम्यां सोपवासरे सकलराज शिरो मुकुटमाणिग्यमरीचि जिरीकृत चरण कमल पाद पोठस्य श्रीपीरोजसाहे: सकलसाम्राज्यधुरी विभ्राणस्य समये श्री दिल्या श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये सरस्वती गच्छ बला. कारगणे भट्टारक थी रत्नकीति देव पट्टोदयाद्रि तक्षणतरुणित्वमुर्वी कुर्वाणः भट्टारकः श्री प्रभाचन्द्र देव शिष्याणां ब्रह्म नाथराम इत्याराधना पनि कायो ग्रंथ आत्म पठनार्य लिखापितम् । -आरा. पंजि० प्र०व्यावर भवन प्रति ३. शिबु कोवि जइ स्त्रीरहिं सिंचहि तो वि ण सो कुडवत्तणु मुंघइ। उच्छ को वि जह सत्यं खंड, तो विण सो महस्त्तणु छुडइ। दुजण-सुअण सहा तप्पा, सुरु तवइ ससहरसीयरकरू। -बाहुबली चरित प्रशस्ति

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