Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 490
________________ ४७१ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पट्टधर शिष्य थे ही, किन्तु आपके अन्य तीन शिष्यों से भट्टारक पदों की तीन परम्पराए प्रारम्भ हुई थों जिनका भागे शाखा-प्रशाखा रूप में विस्तार हुआ है। भट्टारक शुभचन्द दिल्ली परम्परा के विद्वान थे। इनके द्वारा 'सिद्धचक्र' को कथा रची गई है। जिसे उन्होंने सम्पादृष्टि जालाक के लिये बनाई थो । भ. सकलकोति से ईडर को गद्दी प्रार देवेन्द्रकीर्ति मे सूरत की गद्दी की स्थापना हुई यो। चूंकि पचनन्दी मूलसंघ के विद्वान थे मतः इनको परम्परा से मूल संघ की परम्परा का विस्तार हुना। पपनन्दी अपने समय के अच्छे विद्वान, विचारक नीर प्रभावशाली भट्टारक थे। भर नाका कीर्ति ने इनके पास आत वर्ष रहकर धर्म, दर्शन, छन्द, काव्य, व्याकरण, कोष, साहित्य पादि का ज्ञान प्राप्त किया था और कविता में निपुणता प्राप्त की थी। भट्टारक सकलकीति ने अपनी रचनाओं में उनका स-सम्मान उल्लेख किया है नन्दी केवल गद्दी धारी भट्टारक ही नहीं थे, किन्तु जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सदा सावधान रहते थे। पग्रनन्दी प्रतिष्ठाचार्य भी थे। इनके द्वारा विभिन्न स्थानों पर अनेक मूर्तियों को प्रतिष्ठा की गई थी। जहां वे मंत्र-तंत्रवादी थे, वहां वे प्रत्यन्त विवेकशील और चतुर थे। मापके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ विभिन्न स्थानों के मन्दिरों में पाई जाती है। पाठकों की जानकारी के लिये दो मूर्ति लेख नीचे दिये जाते हैं: १प्राविनाय–ओं संवत १४५० वैशाख सुदी १२ गुरौ श्री चहवाण वंश कुशेशय मार्तण सारवं विकमन्य श्रीमत स्वरूप भूपान्वय झग्देवात्मजस्य भषज शक्रस्य श्री सवानपतेः राज्ये प्रवर्तमाने श्री मलसंधे चन्द देव, तत्पढ़े श्री पदमनन्धि वेव तबुपधेशे गोलाराडान्वये-- –(भट्टारक सम्प्रदाय ८६२) २.अरहंत-हरितवर्ण कृष्णमति-सं०१४६३ वर्षे माघ सुबी १३ शुके श्री मूल संधे पट्टाचार्य श्री पदम मन्दि वा गोलारामधपे साधु नागदेव सुत----। (इटाया के जैन मूर्ति लेख-प्राचीन जैन लेख संग्रह पृ० ३८) ऐतिहासिक घटना भ.पग्रनन्दी के सानिध्य में दिल्ली का एक संघ गिरनार जी को यात्रा को गया था। उस समय श्वेताम्बर सम्प्रदाय का भी एक संघ उक्त तीर्थ की यात्रार्थ यहाँ माया हुआ था। उस समय दोनों संघों में यह विवाद छिड़ गया कि पहले कौन बन्दना करे, जब विवाद ने तूल पकड़ लिया और कुछ भी निर्णय न हो सका, तब उसके शम नार्थ यह युक्ति सोची गई कि जो संघ सरस्वती से अपने को 'माद्य' कहला देगा, वही संघ पहले यात्रा को जा सकेगा अत: भट्टारक नन्दी ने पाषाण की सरस्वती देवी के मुख से 'माद्य दिगम्बर' शब्द कहला दिया, परिणामस्वरूप दिगम्बरों ने पहले यात्रा की, और भगवान नेमिनाथ की भक्ति पूर्वक पूजा की। उसके बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने की। उसी समय से बलात्कारगण की प्रसिद्धि मानी जाती है। वे पद्य इस प्रकार है : पवमनम्चि गुरुजतिो बलात्कारगणाप्रणी। पाषाणघटिता येन वाविता श्री सरस्वती।। अर्जयन्स गिरोतेन गच्छ: सारस्वतोऽभवत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्री पवमनधिने ॥ यह ऐतिहासिक घटना प्रस्तुत पद्मनन्दी के जीवन के साथ घटित हुई थी। पद्मनन्दी नाम साम्य के कारण कुछ विद्वानों ने इस घटना का सम्बन्ध प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द के साथ जोड़ दिया । वह ठोक नहीं है। क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य मूल संघ के प्रवर्तक प्राचीन मुनि पुंगव हैं और घटनाक्रम प्रर्वाचीन है। ऐसी स्थिति में यह घटना मा. कुन्दकुन्द के समय की नहीं है। इसका सम्बन्ध तो भट्रारक पद्मनन्दी से है। १. श्रीपयनन्दी मुनिराजपट्टे शुभोपदेशी शुभचन्द्रदेवः । श्रीसिवचक्रस्य कथाऽवसारं कार भव्यांबुजभानुमाली। (जैनग्रन्थ प्रशस्ति सं० मा.११.८८)

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