Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 483
________________ ; > 2 : ४७१ ११वीं १६वीं १७ और १०वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि कुशराज ग्वालियर के निवासी थे । उन्होंने राजा डुंगरसिंह के पुत्र कोर्तिसिंह के राज्यकाल में ध्वजाश्र से अलंकृत जिनमंदिर का निर्माण किया था वह लोभ रहित और पर नारो से पराङ्मुख था । दुःखी दरिद्रोजनों का संपोषक था। उक्त सावयन्त्र रिउ ( सम्यक्त्वकौमुदी ) उसी की अनुमति से रचागया था। इसो से प्रत्येक संधि पुष्पिका वाक्य में - "संघाहिद कसराज प्रणुमणिए' वाक्य के साथ उल्लेख किया गया हैं। इससे सावयचरिउ की रचना सं० १५१० के बाद हुई जान पड़ती है, क्योंकि कीर्तिसिंह सं० १५१० के बाद गद्दी पर बैठा था । 'पासणाहपुराण या पासणाहचरिउ में ७ सन्धियाँ और १३६ के लगभग कडबक हैं, जिनमें जैनियों के harna तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ का जीवन परिचय दिया हुआ है। पार्श्वनाथ के जीवन परिचय को व्यक्त करने वाले अनेक ग्रंथ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषा में तथा हिन्दी में लिखे गये हैं । परन्तु उनसे इसमें कोई खास विशेषता ज्ञात नहीं होती। इस ग्रन्थ की रचना जोयणिपुर (दिल्ली) के निवासी साहू खेऊ या खेमचन्द को प्रेरणा से की गई है इनका वंश अग्रवाल और गोत्र ए दिल था। खेमचंद के पिता का नाम पजण साहू, और माता का नाम बील्हादेवी था किन्तु धर्मपत्नी का नाम अनी था उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, सहसराज, पहराज, रघुपति, श्रीर होलिम्म । इनमें सहसराज ने गिरनार की यात्रा का संघ चलाया था। साहू खेमचन्द सप्त व्यसन रहित और देवशास्त्र गुरु के भक्त थे। प्रशस्ति में इनके परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुआ है। अतएव उक्त ग्रंथ उन्हीं के नामांकित किया गया है । ग्रन्थ की प्राद्यन्त प्रशस्ति बड़ी ही महत्वपूर्ण है, उससे तात्कालिक ग्वालियर की सामाजिक धार्मिक, राजनैतिक परिस्थितियों का यथेष्ट परिचय मिल जाता है। और उससे यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उस समय ग्वालियर में जैन समाज का नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था, और ये अपने कर्तव्य पालन के साथ-साथ महिमा, परोपकार और दयालुता का जीवन में साचरण करना श्रेष्ठ मानते थे । ग्रन्थ बन जाने पर साहू खेमचन्द ने कवि रइधू को द्वीपांतरों से आये हुए विविध वस्त्रों और आभरणादिक से सम्मानित किया था, और इच्छित दान देकर संतुष्ट किया था । 'बलहचरिउ' (पउमचरिउ ) में ११ संधियों और २४० कड़वक हैं जिनमें बलभद्र ( रामचन्द्र ), लक्ष्मण और सीता आदि की जीवनगाथा अंकित की गई है, जिसकी इलोक संख्या साढ़े तीन हजार के लगभग है । ग्रन्थ का कथानक बड़ा ही रोचक और हृदयस्पर्शी है। यह १५वीं शताब्दी की जैन रामायण है। ग्रंथ को शैली सीधी और सरल है, उसमें शब्दाडम्बर को कोई स्थान नहीं दिया गया, परन्तु प्रसंगवश काव्योचित वर्णनों का सर्वथा प्रभाव भी नहीं है। राम की कथा बड़ी लोकप्रिय रही है । इससे इस पर प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और हिन्दी में अनेक ग्रथ विविध कवियों द्वारा लिखे गए हैं। 1 यह ग्रन्य भी अग्रवालवंशी साहु बादू के सुपुत्र हरसी राहु की प्रेरणा एवं अनुग्रह से बनाया गया है। साहू हरसी जिन शासन के भक्त और कषायों को क्षीण करने वाले थे। आगम और पुराण-ग्रन्थों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन पूजा और सुपात्रदान में तत्पर तथा रात्रि और दिन में कायोत्सर्ग में स्थित होकर आत्म ध्यान द्वारा स्व-पर के भेद - विज्ञान का अनुभव करने वाले, तथा तपश्चरण द्वारा शरीर को क्षीण करने वाले धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे । आत्मविकास करना उनका लक्ष्य था । ग्रन्थ की आद्य प्रशस्ति में हरसी साहू के कुदुम्ब का पूरा परिचय दिया हुआ है। ग्रन्थ में रचनाकाल दिया हुआ नहीं है । 'मेहेसरचरिउ' में २३ संधियाँ और ३०४ कडवक हैं। जिनमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार और उनकी धर्मपत्नी सुलोचना के चरित्र का सुन्दर चित्रण किया गया है। जयकुमार और सुलोचना का चरित बड़ा ही पावन रहा है । ग्रन्थ की द्वितीय तृतीय संधियों में आदि ब्रह्मा ऋषभदेव का गृहत्याग, तपश्चरण और केवलज्ञान की प्राप्ति, भरत की दिग्विजय, भरत बाहुबलि युद्ध, बाहुबलि का तपदचरण और कंवल्य प्राप्ति आदि का कथन दिया हुआ है। छठवीं सन्धि के २३ कडवकों में सुलोचनाका स्वयम्बर सेनापति मेघश्वर (जयकुमार) का भरत चक्रवर्ती के पुत्र प्रकीर्ति के साथ युद्ध करने का वर्णन किया है । ७वीं सन्धि में सुलोचना और मेधेश्वर के विवाह का कथन दिया हुआ है । ओर ८वीं से १३वीं संधि तक कुबेर मित्र, हिरण्यगर्भ का पूर्वभव वर्णन तथा भीम भट्टारक का निर्वाण गमन, श्रीपाल चक्रवर्ती का हरण और मोक्ष गमन, एवं मेघेश्वर का तपश्चरण, निर्वाण गमन आदि का

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