Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 487
________________ । | 'भट्टारक और कवि ४७५ क्योंकि उसके बाद मुस्लिम शासकों के हमलों से चन्द्रवाड की श्री १५वी, १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य शताब्दी के अंतिम चरण में हुई जान पड़ती है। सम्पन्नता को भारी क्षति पहुंची थी । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधि के प्रारम्भ में ग्रन्थ रचना में प्रेरक साहु नेमिदास का जयघोष करते हुए मंगल कामना की है। जैसा कि उसके निम्नषद्यों से प्रकट है प्रतापराज विश्व तस्त्रिकालदेवार्चनवंथिता शुभा । जनसशास्त्रामृतपानशुद्धधीः चिरं क्षितौ नतु नेमिदासः ॥ ३ Refa गुणानुरागी श्रेयान्निय पात्रदान विधिदक्षः । तोसउ कुलनभचन्द्रो नन्वतु मित्येव नेमिवासाख्यः ॥ ४८ ॥ ग्रन्थ प्रभी तक अप्रकाशित है, उसे प्रकाश में लाना श्रावश्यक है। 1 'जीवंधर चरिउ' में तेरह संधियां दी हुई हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में दर्शन विशुद्धयादि षोडशकारण भावनाओं का फल वर्णन किया गया है। उनका फल प्राप्त करने वाले जीवंधर तीर्थंकर की रोचक कथा दी गई है। प्रस्तुत जोबधर स्वामी पूर्व विदेह क्षेत्र के अमरावती देश में स्थित गंधर्वराज (राज) नगर के राजा सीमंधर और उनकी पट्ट महिषी महादेवी के पुत्र थे । इन्होंने दर्शनविशुद्धयादि षोडश कारण भावनात्रों का भक्तिभाव से चिंतन किया था, जिसके फलस्वरूप वे धर्म-तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर हुए। ग्रन्थ का कथा भाग बड़ा हो सुन्दर है । परन्तु प्रय प्रति अत्यंत प्रद्युद्धरूप में प्रतिलिपि की गई है जान पड़ता है। प्रतिलिपिकार पुरानी लिपि का अभ्यासी नहीं था । प्रतिलिपि करवा कर पुनः जांच भी नहीं की गई । इस ग्रंथ का निर्माण कराने वाले साहू कुन्यदास हैं, जो सम्भवतः ग्वालियर के निवासी थे। कवि ने इस ग्रन्थको उक्त साहु को 'श्रवण भूषण' प्रकट किया है। साथ ही उन्हें ग्राचार्य चरण सेवी, सप्त व्यसन रहित, त्यागो धवलकीति वाला, शास्त्रों के अर्थ को निरंतर अवधारण करनेवाला और शुभ मती बतलाते हुए उन्हें साहु हेमराज और मोल्हा देवी का पुत्र बतलाया गया है । कवि ने उनके चिरंजीव होने की कामना भी की है जैसा कि द्वितीय संधि के प्रथम पद्म से ज्ञात होता है । 'जो भत्तो सूरिवाए विसणसमसया जि विरता स एयो । जो चाई पुत्त बाणे ससिपह धवली किसि वल्लिकु तेजो। जो नित्यो सर ये विसय सुहमई हेमरायस्स ताओ । सो मोल्ही अंग जाम्रो 'भवदु इह धुवं कुंथुवासो थिराम्रो ।' 'सिरिपालचरित' या सिद्धचक्र विधि' में दश संधियाँ दी हुई हैं, और जिनकी प्रानुमानिक श्लोक संख्या दो हजार दो सौ बतलाई है। इसमें चम्पापुर के राजा श्रीपाल और उनके सभी साथियों का सिद्धचक्रव्रत (श्रष्टाह्विका व्रत) के प्रभाव से कुष्ठ रोग दूर हो जाने प्रादि की कथा का चित्रण किया गया है और सिद्धचत का माहात्म्य ख्यापित करते हुए उसके अनुष्ठान की प्रेरणा की गई है। ग्रन्थ का कथाभाग बड़ा ही सुन्दर और चित्ताकर्षक है ! भाषा सरल तथा सुबोध है । यद्यपि श्रीपाल के जीवन परिचय मोर सिद्धचक्रव्रत के महत्व को चित्रित करने वाले संस्कृत, हिंदी गुजराती भाषा में अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं। परंतु अपभ्रंश भाषा का यह दूसरा ग्रन्थ है । प्रथम ग्रन्थ पंडित नरसेन का है। प्रस्तुत ग्रन्थ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहू बाटू के चतुर्थ पुत्र हरिसी साहू के अनुरोध से बनाया है कवि ने प्रशस्ति में उनके कुटुम्ब का संक्षिप्त परिचय भी अंकित किया है । कवि ने ग्रन्थ की प्रत्येक संधियों के प्रारम्भ में संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक उक्त साहु का यशोगान करते हुए उनकी मंगल कामना की है। जैसा कि ७वीं संधि के निम्न पद्म से प्रकट है । यः सत्यं वदति व्रतानि कुरुते शास्त्रं पठेत्याव रात् मोहं सुञ्चति गच्छतिस्व समयं धत्ते निरोहं पदं ।

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