Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 485
________________ १५वीं, १६वी, १२वीं और १८वीं बाताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि ने अपने रिट्ठणे मिचरिउ से पहले बनाई हुई अपनी निम्न रचनाओं के भी नाम दिये हुए हैं। महापुराण, भरत मेनापति चरित (मेघेश्वर चरित) जसहरचरिउ (यशोधरचरित) वित्तसार, जीवंधर चरिउ और पासचरिउ का नामो. लेख किया है। अन्ध में रचनाकाल नहीं दिया, इसलिए यह निश्चित बतलाना तो कठिन है कि यह ग्रन्ध कब बना? फिर भी अन्य सूत्रों से यह अनुमान किया जा सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की १५वीं शताब्दो के अन्तिम चरण या १६वीं के प्रथम चरण मे रचा गया है। प्रस्तुत 'षणकुमार चरिउ' में चार सन्धियां और ७४ कड़वक हैं। जिनकी श्लोक संख्या ८०० श्लोकों के लगभग है जिनमें धनकुमार की जीवन-गाथा अंकित की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ को रचना आरोन जिला ग्वालियर निवासो जैसवाल बंशी साहु पुण्यपाल के पुत्र साहु भुल्लण की प्रेरणा एवं अनुरोध से हुई है। प्रतएव उक्त ग्रन्थ उन्हीं के नामांकित किया गया है। ग्रन्थ की पाद्य प्रशस्ति में साह भुल्लण के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है। इस ग्रन्थ की रचना कब हुई ? यह ग्रन्थप्रशस्ति पर से कुछ ज्ञात नहीं होता; क्योंकि उसमें रचना काल दिया हुआ नहीं है । किन्तु प्रशस्ति में इस ग्रन्थ के पूर्ववर्ती रचे हुए ग्रन्थों के नामों में 'मिजिणिद चरिउ (हरिवंश पुराण) का भी उल्लेख है इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ उसके बाद बनाया गया है। 'जसहर चरिउ' में ४ सन्धियाँ और १०४ कडवक हैं जिनको श्लोक संख्या ७७ के लगभग है । ग्रन्य में योघेय देशके राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन परिचय दिया हुया है । ग्रन्थ का कथानक सुन्दर और हृदयग्राही है और वह जोव दया को पोपक वार्तामों से ओत-प्रोत है। यद्यपि राजा यशोधर के सम्बंध में संस्कृतभाषा में अनेक चरित ग्रन्थ लिखे गए हैं जिनमें प्राचार्य सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू' सबसे उच्चकोटि का काव्य-ग्रन्थ है परन्तु अपभ्रंश भाषा को यह दूसरो रचना है प्रथम ग्रन्थ महाकवि पुष्पदन्त का है। यद्यपि भ० अमरकोति ने भो 'जसहर नरिज' नाम का गन्य लिवा था: परंतु वह अभी तक अनुपलब्ध है। ऐ०५० सरस्वती भवन व्यावर में इसकी सचित्र प्रति विद्यमान है । इस ग्रन्थ की रचना भट्टारक कमलकीति के अनुरोध से तथा योगिनीपुर (दिल्ली) निवासी अग्रवाल वंशी साह कमलसिंह के पुत्र साहु हेमराज को प्रेरणा से हुई है। अतएव अन्ध उन्हीं के नाम किया गया है। उक्त साह परिवार ने गिरनार जी को तीर्थयात्रा का संघ चलाया था। ग्रन्थ को आद्यन्त प्रशस्ति में साह कमलसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय कराया गया है । कवि ने यह ग्रन्थ लाहड़पुर के जोधा साह के विहार में बंटकर बनाया है, और उसे स्वयं 'दयारसभर गुणपवित'--पवित्र दयारूपी रस से भरा हुआ बतलाया है। 'प्रणयमी कहा' में रात्रिभोजन के दोषों और उससे होने वाली व्याधियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि दो घही दिन के रहने पर श्रावक लोग भोजन करें, क्योंकि सूर्य के तेज का मंद उदय रहनेपर हृदय-कमल सकुचित हो जाता है अतः रात्रि भोजन के त्याग का विधान धार्मिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से किया गया है जैसा कि उसके निम्न दो पद्यों से प्रकट है :-- "जि रोय-बलद्दिय दीण प्रणाह, जि कुट्ठ-गलिय कर करण सवाह । बुहग्ग जि परियणु बागु प्रणेह, स-रणिहि भोयण फसु जि मुह । घड़ी दुइ वासरु यक्का जाम, सुभोयण सावय भुंहि ताम। विवायरु तेजजि मंदत होइ, सकुश्चइ चित्तह कमतु जिव सोइ ।" कथा रचने का उद्देश्य भोजन सम्बन्धो पसंयम से रक्षा करना है, जिससे प्रारमा धार्मिक मर्यादाओं का पालन करते हुए शरीर को स्वस्थ बनाये रखे । 'सिद्धांतार्थसार' का विषय भी सैद्धांतिक है और अपभ्रंश के गाथा छंद में रचा गया है। इसमें सम्यग्दर्शन जीव स्वरूप, गुणस्थान, व्रत, समिति, इंद्रिय-निरोध आदि आवश्यक क्रियामों का स्वरूप, अट्ठाईस मूलगुण, प्रष्टकर्म, द्वादशांगध त, लब्धिस्वरूप, द्वादशानुपंक्षा दशलक्षणधर्म; और ध्यानों के स्वरूप का कथन दिया गया है। इस अन्य को रचना वणिकवर श्रेष्ठो खेमसी साह या साह खेमचन्द्र के निमित की गई है। परन्तु खेद है कि उपलब्ध ग्रन्य

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