Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 484
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-माग २ सुन्दर कथन दिया हुआ है। अन्य काव्य-कला की दृष्टि से उच्च कोटि का है। ग्रन्थ में कवि ने दुवई, गाहा, चामर, पत्ता, पद्धडिया, समानिका और मत्तगयंद आदि छन्दों का प्रयोग किया है । रसों में शृंगार, वीर, बोभत्स और शान्त रस का, तथा रूपक उपमा और उत्प्रेक्षा आदि मलकारों की भी योजना की गई है। इस कारण ग्रन्थ सरस और पठनीय बन गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती निम्न कवियों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है । कवि चक्रवर्ती भीर रोन, देवनन्टी पर नाम गाद (स्ती सन ४७५ से ५२५ ई०) जनेन्द्र व्याकरण, वज्रसेन और उनका पड़दर्शन प्रमाण नाम का जैन न्याय ग्रन्थ का, रविषेण (वि० सं० ७३४) तथा उनका पारित, पुलाटसंधी जिनसेन (वि० सं०८४०)और उनका हरिवंश, महाकबि स्वयभू, चतुर्मुख तथा पुष्पदन्त, देवसेन का महेस रचरिउ (जयकमारसुलोचना चरित) दिनकरसेन का अनंगचरित । ग्रन्थ की पाद्यन्त प्रशस्तियों में ग्रन्थ रचना में प्रेरक ग्वालियर नगर के सेठ अग्रवाल कलावतंश साह खेऊ या खेमसिंह के परिवार का विस्तृत परिचय दिया हुया है। और अन्य की प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में कवि ने संस्कृत श्लोकों में आश्रयदाता उक्त साहू की मंगल कामना की है। द्वितीय संधि के प्रारम्भ का निम्त पद्य दृष्टव्य है। तीर्थशो वृषभेश्वरो गणनुतो गौरीश्वरो शंकरो, प्रावीशो हरिणधितो गणपतिः श्रीमान्युगादिप्रभु। नाभेयो शिववाद्धिवर्धन शशिः कैवल्यभाभासुरः, क्षेमास्यस्य गुणांन्वितस्य सुमतेः कुर्याच्छिवं सो जिनः। इस पद्य में ऋषभदेव के जो विशेषण प्रयुक्त हुए हैं वे जहाँ उनकी प्राचीनता के द्योतक हैं, वहां वे ऋषभदेव पौर शिव की सादृश्यता की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। ग्रन्थ सुन्दर है और इसे प्रकाश में लाना चाहिये। रिणमिचरिउ' या 'हरिवंश पुराण' ग्रन्थ में १४ सन्धियाँ और ३०२ कड़बक हैं तथा १६०० के लगभग पद्य होंगे, जिनमें ऋषभ चरित, हरिवंशोत्पत्ति, बसूदेव और उनका पूर्व भव कथानक, बन्धुवान्धवों से मिलाप, कंस बलभद्र और नारायण के भवों का वर्णन, नारायण जन्म, कंसवध, पाण्डवों का जुए में हारना द्रोपदी का चीर हरन, पाण्डवों का अज्ञातवास, प्रद्युम्न को विद्या प्राप्ति और श्रीकृष्ण से मिलाप, जरासंध वध, कृष्ण का राज्यादि सुखभोग नेमिनाथ का जन्म, बाल्यक्रीडा यौवन, विवाहमें वैराग्य, दीक्षा तथा तपश्चरण केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्ति मादि का कयन दिया है। ग्रन्थ में जैनियों के बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ को जीवन-घटनामों का परिचय दिया हमा है । नेमिनाथ यदुवंशी क्षत्री थे और थे कृष्ण के चचेरे भाई। उन्होंने पशुनों के बंधन खुलवाए और संसार को असारता को देख, बैरागी हो तपश्चरण द्वारा प्रात्म-शोधन किया, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बने, और जगत को आत्महित करने का सुन्दरतम मार्ग बतलाया । उनका निर्वाण स्थान ऊर्जयन्त गिरि या रेवतगिरि है जो आज भी नेमिनाथ के प्रतीत जीवन को झाँको को प्रस्तुत करता है। तीर्थंकर नेमिकुमार की तपश्चर्या और चरण रज से वह केवल पावन ही नहीं हुआ, किन्तु उसकी महत्ता लोक में आज भी मौजूद है। इस ग्रन्थ की रचना योगिनीपुर (दिल्ली) से उत्तर की ओर वसे हुए किसी निकटवर्ती नगर का नाम था जो पाठ की प्रशुद्धि के कारण ज्ञात नहीं हो सका । ग्रन्थ की रचना उस नगर के निवासी गोयल गोत्रीय अग्रवाल वंशी महाभव्य साहु लाहा के पुत्र संघाधिप साह लोणा की प्रेरणा से हुई है। ग्रन्थ की माद्यन्त प्रशस्तियों में साह लोणा के परिवार का संक्षिप्त परिचय कराया गया है। कवि ने ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती विद्वानों और उनके कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया है, देवनन्दि (पूज्यपाद) जैनेन्द्र व्याकरण, जिनसेन (महापुराण) रविषेण (जंन रामायण-पद्मचरित) कमलकीति और उनके पट्टधर शुभचन्द्र का नामोल्लेख है। जिनका पट्टाभिषेक कनकगिरि वर्तमान सोनागिरि में में हना था' साथ ही कवि १. कमल किति उत्तम समधारउ, भम्बह-भव-अंबोरिणहि-तारउ । तस्स पट्ट करण्याटि परिट्ठिल, सिरि-सुहचंद सु-तब-उक्कंट्टिउ ॥ हरिवंश पु. प्र.

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