Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 480
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ ४६८ को अत्यन्त सुरुचिकर और सरस मालूम होती हैं प्रवास्ति से ज्ञात होता है कि क्षेमसिंह का कुल अग्रवाल और गोत्र गोयल था उनकी पत्नी निउरादे से दो पुत्र हुए। कमलसिंह और भोजराज, कमल सिंह विज्ञान कला कुशल और बुद्धिमान, देव शास्त्र और गुरु का भक्त था इसकी भार्या का नाम 'सरासर' था, उससे मल्लिदास नाम का पुत्र हुआ था। और इनके लघु भ्राता भोजराज की पत्नी देवइ से दो पुत्र चन्द्रसेन और देवपाल नाम के हुए थे । ग्रन्थ को प्रथम संधि में १७वे कडवक से स्पष्ट है कि कमलसिंह ने भगवान् प्रादिनाथ की ग्यारह हाथ की ऊँची एक विशाल मूर्ति का निर्माण राजा डूंगरसिंह के राज्यकाल में कराया था, जो दुर्गति के दुःखों की विनाशक, मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्र के लिये वञ्च समान, भव्यों के लिये शुभगति प्रदान करने वालो, दुःख, रोग, शोक की नाशिका थी— जिसके दर्शन चिन्तन से भव्यों की भव बाधा सहज हो दूर हो जाती थी। इस महत्वपूर्ण मूर्ति को प्रतिष्ठा कर कमलसिंह ने महान पुण्य का संचय किया था। जो देवहिदेव तित्थंकरु, प्राणाहु तियोयसुहंकर । तहु पडिमा दुग्गइणिण्णासनि, जा मिच्छत गिरिवं-सरासनि । जाणु वह सुग- सासणि, जामहिरोय-सोय-बुहु-णासणि 1 सर एयारहकर विहंगी, काशवियणिरूवमग्रइतुंगी । गयिप्रणय जिमकोलवलई, सुरगुरुताह गणण जद्दलक्खड़ । करिव पट्टि तिल पुणु दिण्णज, चिरुभवि पविहिउ कलिमलु- छिण्ण ॥ " तब कमल सिंह ने चतुविधि संघ की विनय की थी। सम्यक्त्व के ग्रंगों में प्रसिद्ध होने वाले पुरुषों को कथाओं का आधार प्राचार्य सोमदेव का यशस्तिलक चम्पू का उपासकाध्ययन रहा प्रतीत होता है। afa ने इस ग्रन्थ की रचना सं० १४६२ में की थी। उदह सय बाणउ उत्तरालि, बरिसइ गय विषकमराय कालि । वक्यत्तु जि जणथय समक्खि भद्दव मासम्मि स-सेयपकिय | पुण्णमिदणि कुजवारे समोइ, सुहयारें सुहणा में जणोइ ।" सम्मइ जिणचरिउ - इसमें १० सर्ग और २४६ कडबक हैं, जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर का जीवन परिचय अंकित किया गया है। कवि ने इस ग्रन्थ के निर्माण करने को कथा बड़ी रोचक दी है | ब्रह्म खेल्ने कवि से ग्रन्थ बनाने को स्वयं प्रेरणा नहीं की, क्योंकि उन्हें सन्देह था कि शायद कवि उनकी अभ्यर्थना को स्वीकार न करे। इसी से उन्होंने भट्टारक यशःकीति द्वारा कवि को ग्रन्थ बनाने की याद दिलाने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें विश्वास था कि कवि भट्टारक यशःकीर्ति की बात को टाल नहीं सकते । भ० यशःकीर्ति ने हिसार निवासी साहू तोसउ की दानवीरता, साहित्य रसिकता, और धर्म निष्ठता का परिचय कराते हुए उनके लिये 'सम्मइ जिनचचरिउ' के निर्माण करने का निर्देश किया। कवि ने अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए उसे स्वीकृति किया । इससे ब्रह्मचारी सेल्हा को हर्ष होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत ब्रह्म सेल्हा हिसार निवासी अग्रवाल वंशी गोयल गोत्रीय साहूतोसउ का ज्येष्ठ पुत्र था । उसका विवाह कुरुक्षेत्र के तेजा साहू की जालपा पत्नी से उत्पन्न खोमी नाम की पुत्री से हुआ था। उनके कोई सन्ता न थी । अतः उन्होंने अपने भाई के पुत्र हेमा को गोद ले लिया, और गृहस्थी का सब भार उसे सौंपकर मुनि यशः कीर्ति से श्रणुन्नत ले लिये। उसी समय से बे ब्रह्म खेल्हा के नाम से पुकारे जाने लगे । वह उदार, धर्मात्मा और गुणज्ञ थे और संसार देह-भोगों से उदासीन थे । उन्होंने ग्वालियर के किले में चन्द्रप्रभ भगवान की एक ग्यारह हाथ उन्नत विशाल मूर्ति का निर्माण कराया 1 ता तम्मि खणि बंभवय भार भारेण सिरि अयरवालंकयंसम्मि सारेण । संसार-तनु- भोष णिणिचिण, खेल्हा हिहाणेण नमिकण गुरुतेग भो मयणदावल्हव रवणदाण, वरधम्म भाणामएणेव तित्तरेण । जसकित्ति विवशत्तु मंडिय गुणेहेण । संसार जल रासि उत्तार वर जाण ।

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