Book Title: Jain Dharma ka Prachin Itihas Part 2
Author(s): Balbhadra Jain
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 475
________________ १५वीं, १६वों, १५वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि सम्बन्ध में जो कुछ जानकारी प्राप्त हो सकती है, उसे पाठकों की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है: उक्त कवि के ग्रन्थों से पता चलता है कि वे ग्वालियर में नेमिनाथ और वर्द्धमान जिनालय में रहते थे और कचित्तरूपी रसायन के निधि रसाल थे। ग्वालियर १५वीं शताब्दी में खूब समुद्ध था, उस समय वहां पर देहली के तोमर वंश का शासन चल रहा था। तोमर वंश बड़ा ही प्रतिष्ठित क्षत्रिय वंश रहा है और उनके शासनकाल में जैनधर्म को पनपने का बहत कुछ पाश्रय मिला है। जैन साहित्य में ग्वालियर का महत्वपुर्ण स्थान रहा है। उस समय तो वह एक विद्या का केन्द ही बना हना था, वहां की मूर्तिकला और पुरातत्व की कलात्मक सामग्री माज भी दर्शकों के चित्त को अपनी ओर आकर्षित कर रही है। उसके समवलोकन से ग्वालियर की महत्ता का सहज ही भान हो जाता है। कविबर ने स्वयं सम्यक्त्व-गुण-निधान नामक ग्रन्थ को आद्य प्रशस्ति में ग्वालियर का वर्णन करते हुए वहां के तत्कालीन श्रावकों की चर्या का जो उल्लेख किया है उसे बतौर उदाहरण के नीचे दिया जाता है: सह रसिक महायम कपण, गुरु-देव सत्थ विणयं वियछ । जहि वियक्तण मण व सध्व, धम्माणुरत पर गलिय गव्व ।। जहि सत्त-यसण-चुय सावयाई, णिवसहि पालिय बो-वह-वयाई । सम्मइंसण-मणि-भूसियंग, णिच्चोम्भासिय पक्ष्यण सुयंग ।। वारापेखण-विहि मिचलीण, जिण महिम महच्छव णिरु पवीण । चेयणगण अप्पारुह पवित्त, जिण सुत्त रसायण सबण तित्त ।। पंचम बुल्समु अइ-विसमु-कालु, पिद्दलि वि तुरिउ पविहिउ रसालु। धम्ममाणे जे कालु लिति, णक्यारमंतु प्रह-णिस गुणंति ॥ संसार-महष्णव-वडण-भीय, णिस्संक पमुह गुण अण्णणीय। जहि णारीयण दिद्ध सोलजुत्त, दाणे पोसिय णिरु तिथिह पत्त ।। तिय मिसेण लच्छि अवयरिय एत्थु, गयरूव ग दोसह का वि तेस्य । वर अंवर कणयाहरण एहि, मंडिय तणु सोहहिं मणि जडेहिं ।। जिण-णतण-पूय-उछाह चित्त, भव-तण-भोयहि णिच्च जि विरुत्त । गुरु-वेव पाप पंकयाहि लीए, सम्मइंसणपालण परीण ।। पर पुरिस स-बंधव सरिस जांहि, अह णिस पडियण्णिय णिय मणाहि। किवणमि तहि हज' पुरिस णारि, जहि डिभ वि सग वसणावहारि । पटहि पदयहि पोसह कुणंति, घरि घरि चच्चरि जिण गुण थुपंक्ति । साहम्मि य वत्यु णिरु वहंति, पर अवगुण झपहि गुण कहति ॥ एरिसु सावहि विहियमाणु, मीसुरजिण हरि वड्ढमाणु। णिवसइ जा रइधू कवि गुणालु, सुक्ति-रसायण-णिहि रसालु ॥५॥ इन पद्यों पर दृष्टि डालने से उस समय के ग्वालियर की स्थिति का सहज ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। उस समय लोग कितने धार्मिक सच्चरित्र और अपने कर्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने तथा अनुकरण करने की वस्तु है। ग्वालियर में उस समय तोमर वंशी राजा डंगरसिंह का राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और जैनधर्म में प्रास्था रखने वाला शासक था। उसने अपने जीवन काल में अनेक जैन मूर्तियों का निर्माण कराया, वह इस पुनीत कार्य को अपनी जीवित अवस्था में पूर्ण नहीं करा सका था, जिसे उसके प्रिय पुत्र कीतिसिंह या करणसिंह ने पूरा किया था। राजा हूगरसिंह के पिता का नाम गणेश या गणपतिसिंह या, जो वीरमदेव का पुत्र था। गणपतिमिह वि० सं० १४७६ में राज्य पद पर मासीन थे । इनके राज्य काल में उक्त संवत् वैशाख सुदि शुक्रवार के दिन मूलसंघो नंबाम्नायी भट्टारक शुभचन्द्र देव के मण्डलाचार्य पण्डित भगवत के पुत्र खेमा और धर्मपत्नी खेमादे ने पातु की

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