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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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है। सूरस्थगण के श्रीनन्दिपंडित देव तथा उनके बन्धु भास्करनन्दि पंडितदेव के समाधिमरण का उल्लेख है । ( जैन लेख सं० भा० ४ पृ० ११३) ।
जिनचन्द्र नाम के भी अनेक विद्वान हो गए हैं :
एक जिनचन्द्र का उल्लेख सं० १२२६ के विजोलिया के शिलालेख में है जो लोलाक के गुरु थे । कलसापुर (मैसूर) के सन् १९७६ के शिलालेख में बालचन्द्र की गुरुपरम्परा में गोपनन्दि चतुर्मुखदेव के बाद जिनचन्द्र का उल्लेख है।
श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५६ में एक योगि जिनचन्द्र का उल्लेख है।
चौथे जिनचन्द्र वे है । जिनका सं० १४४८ (सन् १३९२ ) के लेख में जिनचन्द्र भट्टारक के द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है।
पांचवे जिनचन्द्र वे हैं जिनका उल्लेख माधवनन्दी की गुरु परम्परा में गुणचन्द्र के बाद जिनचन्द्र का नाम दिया है।
छठे जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु हैं। और सातवें जिनचन्द्र मूलसंघ के भट्टारक शुभचन्द्र के पधर है, जो सं० १५०७ में प्रतिष्ठित हुए थे। इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी है ।
इन जिनचन्द्रों में से कौन से जिनचन्द्र भास्करनन्दि के गुरु थे, यह निश्चित करना कठिन है। भास्करनन्दि ने अपनी सुखबोधवृत्ति के तीसरे अध्याय के तोसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किया :- जो उड्ढा के संस्कृत पंच संग्रह के जीव समास प्रकरण का १६८ वां पद्य है।
द्विष्कपोताथ का पोता मील नीला च मध्यमा । नीलाकृष्णे च कृष्णाति कृष्णरत्नप्रभादिषु ॥३
पंच सं० १-१६० पृ० ६७०
इसके अतिरिक्त भास्कर नन्दी ने चतुर्थ अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में निम्न पद्य उद्धृत किये हैं"लेश्या योगप्रवृत्तिः स्यात्कषायोदय रञ्जिताः । भावतो द्रव्यतोऽङ्गस्य छविः षोढोमतो तु सा ॥१-१८४ " षड्लेश्यांगा मसेऽन्येषां ज्योतिषका भौमभावनाः । कापोतमुद्गगोमूत्र वर्णलेइया निलाजिनः ॥१-१६० “श्याश्चतुषु षट् च स्युस्तिस्तिलः शुभास्त्रिषु । गुणस्थानेषु शुक्लंका षटषु निलश्यमम्तिमम् ।।१ - १६५ श्राद्यास्तिस्त्रोप्य पर्याप्तेष्व संख्येयाग्वं जीविषु । लेश्याः क्षायिक संदृष्टों कापोतास्या ज्जघन्यका" ॥१-११६ षट्ट-तियंभु तिस्त्रोऽन्त्यास्तेष्व संख्याय जीविषु ।
एकाक्ष विकला सं शिष्याद्य लेश्यात्रयं मतम् ।।१-१६७
बहुत बाद हुए हैं ।
इससे स्पष्ट है कि भास्करनन्दि ने उक्त पद्य उड़ता के संस्कृत पंचसंग्रह से उद्धृत किये हैं। उड्ढा का समय विक्रम को ११वीं शताब्दी का पूर्वा है। धौर भास्करनन्दि उसके शान्तिराज शास्त्री ने 'सुखबोधावृत्ति' की प्रस्तावना में भास्करनन्दी का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का अन्तिम भाग बतलाया है। मेरी राय में इनका समय विक्रम की १४वीं शताब्दी होना संभव है ग्रन्थ सामने न होने से उस पर इस समय विशेष विचार नहीं किया जा सकता ।
भास्करनन्दी की दूसरी कृति ध्यानस्तव है। जिसमें भय प्रशस्ति पद्यों के १०० पद्य हैं, जिनमें ध्यान का वर्णन किया है इसका ध्यान से समीक्षण करने पर उसवर तत्त्वानुशासनादिग्रन्थों का प्रभाव परिलक्षित होता है ।
१. जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २०१ २. जैन लेख संग्रह भा० १० ११५ ३. जैन लेख सं० भा० ४ पृ० २०७