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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १०६ तप रूप चार पाराधनामों का ग्थन किया गया है। आराधना के कथन के साथ अनेक दृष्टान्तों द्वारा उस विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। मरण के भेद-प्रभेदों का अच्छा वर्णन किया है और समाधि मरण करनेवाले क्षपक की परिचर्या में लगनेवाचे साधुओं की संख्या ४४ बतलाई गई है। १६२१ नम्बर की गाथा से १८९१ नं को २७० गाथानों द्वारा ग्रात, रौद्र, धर्म और शुक्ल इन चार ध्यानों का विस्तृत वर्णन किया गया है। ग्रन्थ में कुछ ऐसी प्राचीन गाथाएं मिलती हैं, जिनका उल्लेख श्वेताम्बरीष पावश्यक निशिादि प्रन्थों में पाया जाता है। परन्तु यह अवश्य विचारणीय है कि आवश्यक नियुक्ति प्रादि ग्रन्थ छठवीं शताब्दी में लिखे गए हैं। प्रावश्यक नियुक्ति को मुनिपुण्यविजयजी छठवी शताब्दी का मानते हैं। परन्तु भगवती माराधना उसके कई दाताब्दी पूर्व की रचना है। यद्यपि इस ग्रन्थ में स्त्री मुक्ति और कवलाहार प्रादि की मान्यता का उल्लेख नहीं है, तो भी दशस्थिति कल्पवाली गाथा के कारण प्रेमीजी ने पाराधना के कर्ता को यापनीय सम्प्रदाय का बतलाया है। लगता है, कल्पवाली गाथाएं दोनों सम्प्रदायों में पूर्व परम्परा से आई हैं। वे श्वेताम्बरीय ग्रन्थों से ली गई यह कल्पना समूचित नहीं है। यह ग्रन्थ बड़ा लोकप्रिय रहा है। इस पर अनेक टीका-टिप्पण लिखे गये हैं। इस प्रन्थ पर बिजयोदया और मूलाराधना टीका के अतिरिक्त एक प्राकृत टीका और छोटे-छोटे टिप्पण भी रहे हैं, जिनसे उसकी महत्ता का स्पष्ट भान होता है। अपराजित सुरिया धीविजय द्वारा रचित संस्कृत टीका प्रकाशित हो चुकी है। जिसमें गाथामों के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए अन्य अनेक उपयोगी वस्तुओं पर विचार किया गया है। प्राचार्य शिवकोटि ने इस ग्रंथ की रचना पूर्वाचायौ के सूत्रानुसार की है। श्रीचन्द्र और जयनन्दी ने भी इस पर टिप्पण लिखे हैं। आराधना पञ्जिका और भावार्थ-दीपिका टीका, पं० शिवाजी लाल की भी उपलब्ध है, जो संवत १८१८ को जेठ सुदी १३ गुरुवार को समाप्त हई है। संस्कृत पाराधना प्राचार्य अमितगति द्वितीय ने लिखी है, जो संस्कृत के पद्यों में अनुवाद रूप में है।
अन्ध के अन्त में बालपण्डित मरण का कथन करते हुए, देशव्रती श्रावक के व्रतों का भी कुछ विधान २०७६ से २०५३ तक की ५ गाथाओं में पाया जाता है।
समन्तभद्र का शिष्यत्व श्रवण बेलगोल के शिलालेख न.१०५ में जो शक सं० १०५० (वि० सं० ११८५) का लिखा हुआ है, शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य मीर तत्त्वार्थ सूत्र की टीका का कर्ता घोषित किया है। यथा--
तस्यैव शिष्यः शिवकोटिस रिस्तपोलतालम्बनदेहयष्टिः ।
संसारवाराकरपोतमेतत्तत्वार्थसत्र सदलंचकार ॥ प्रभाचन्द्र के प्राराधना कथाकोश पौर देवचन्द्र कृत 'राजावलीकथे' में शिवकोटि को समन्तभद्र का शिष्य कहा गया है। विक्रान्त कौरव नाटक के कर्ता आचार्य हस्तिमल्ल ने भी, जो विक्रम की १४वीं शताब्दी में हुए हैं अपने निम्न श्लोक में समन्तभद्र के दो शिष्यों का उल्लेख किया है । एक शिवकोटि, दूसरे शिवायन :
शिष्यो तबीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यो।
कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपारमूले हधीतवन्तौ भवतः कृतार्थी । उक्त आराधना ग्रंथ के कर्ता ने समन्तभद्र का कोई उल्लेख नहीं किया। चूंकि समन्तभद्र का दीक्षा नाम अज्ञात है, इस कारण इस सम्बन्ध में कुछ अधिक नहीं कहा जा सकता । समन्तभद्र शिवकोटि के गुरु हैं इस विषय का कोई स्पष्ट प्रमाण मिल जाय तो यह समस्या हल हो सकती है। ग्रंथकार द्वारा उल्लिखित गुरुओं के नामों में जिननन्दि का नाम पाया है। यदि जिननन्दि समन्तभद्र का दीक्षा नाम हो तो उस हालत में शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य हो सकते हैं। पर इसमें सन्देह नहीं कि शिवकोटि समन्तभद्र के शिष्य जरूर थे और वे सम्भवतः काञ्ची के राजा थे--बनारस के नहीं । वे यही हैं या अन्य कोई, यह विचारणीय और अन्वेषणीय है।